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रति सक्सेना का संस्मरण: स्याह पर्दों के ऊपरः एक पाठक प्रतिक्रिया


पुस्तक का नामः स्याह पर्दों के ऊपर
लेखकः रति सक्सेना
प्रकाशकः न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन
मूल्य: ₹225/-


रति सक्सेना एक विलक्षण प्रतिभा संपन्न लेखिका हैं। विश्व कविता परिदृश्य की एक होनहार कवयित्री हैं। कविता को लेकर वे विश्व के 38 देशों में गयी हैं। इसी कविता के लिए वह ईरान गयी थीं। ईरान के सांस्कृतिक क़ानून के मुताबिक किसी भी स्त्री को चाहे वह विदेशी ही क्यों न हो सर ढकना अनिवार्य है। लेखिका रति सक्सेना को भी ईरान के एयरपोर्ट से ही हिजाब पहनना पड़ा था। ईरान भ्रमण के दौरान उनको अजीब क़िस्म के अनुभवों से रू-ब-रू होना पड़ा था। इन्हीं अनुभवों को लेकर रति सक्सेना ने एक यात्रा संस्मरण लिखा है—स्याह पर्दों के ऊपर। मैंने इस पुस्तक को बारीक़ी से पढ़ा है। इस पुस्तक में इनके चार अलग-अलग यात्रा निबंध शामिल किए गए हैं। ये हैं—स्याह पर्दों के ऊपर सुर्ख़ लिबास, ईरान में बिताए दिन, मौन की सीपी-संत्यागो, अलारिज, स्पेन का एक चमत्कारिक नगर और हर सड़क लंदन को जाती है। 

2014 सन्‌ में ईरान में आठ दिवसीय ‘द फ़ज्र पोइट्री फ़ेस्टीवल’ में बिताए क्षणों का संस्मरण करती हुई कवयित्री वहाँ के महिलाओं पर जबरन थोपे गए इस्लामिक स्याह पर्दों का इस तरह से विरोध करते हुए लिखती हैं:

“मैं विरोध करना चाहती हूँ
स्याह पर्दों का
अपने ऊपर चढ़ा लेती हूँ
सुर्ख़ लिबास
मुझे उम्मीद होती है
कि मेरा सुर्ख़पना
उनके स्याह पर एक
सूराख़ करेगा
सच होती है मेरी उम्मीद
जब एक ख़ातून कहती है
ख़ुदा ख़ैर करे
हम भी आपके से बनेंगे।” 

ईरान के दौरे के समय लेखिका को कई असमंजसपूर्ण स्थितियों से गुज़रना पड़ता है। मुम्बई के ईरानी सांस्कृतिक दफ़्तर में ही उनको समझा दिया गया था कि सिर को ढकना बहुत ज़रूरी है। ईरान जाने की सारी प्रक्रिया ही असमंजसता से भरी थी। उनको पहले मुम्बई तक का ही टिकिट दिया गया था और उनको कहा गया था कि उनको ईरान के कल्चर सेंटर तक पहुँचना है। ईरान के सांस्कृतिक केंद्र में उनसे उनकी एक तस्वीर और पासपोर्ट माँगा गया। क़रीब एक घंटे में उनका पासपोर्ट वीसा सहित दे दिया गया। वीसा में उनकी तस्वीर पर स्याही से सिर को रंग दिया गया था। 

संपूर्ण विलोम संस्कृति एवं परंपरा के देश में एक महिला को किन भावावेग तथा परिवेश से गुज़रना पड़ा है इसका ही नहीं ईरान के सांस्कृतिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक धरातल पर भी लेखिका ने सम्यक दृष्टि से देखने का प्रयास किया है। भारतीय पारंपरिक चाल-चलन एवं इस्लामिक आचार-व्यवहार के बीच की खाइयाँ और सामंजस्य पर भी लेखिका ने अपना नज़रिया देने का प्रयास किया है। उनके इन संस्मरणों से गुज़रते हुए मुझे लगा कि मैं ख़ुद उनके साथ भ्रमण कर रहा हूँ। 

ईरानी महिलाओं पर कवयित्री लिखती हैं—ईरानी लड़कियों में ग़ज़ब का नूर होता है, उनसे ज़्यादा फ़ैशन को कोई नहीं समझ पाता होगा, अपने काले लिबास में भी वे इतने नये प्रयोग कर लेती हैं कि वह उनके दिपदिपाते रंग से और दमकने लगता है, और सारे रंगों को नाखूनों में समा देती हैं। 

दरअसल वे दौड़ना चाहती हैं, उड़ना चाहती हैं, लेकिन उन्हें ज़बरदस्ती दबाया जा रहा है। 

उनके बंद जूते फ़ैशन की नई इबारत पढ़ते हैं, एक लट को भी बाहर झाँकने का मौक़ा मिला तो वह सतरंगी हो उठती है। अपने को इतना दुबला रखती हैं कि स्याह तम्बू से तनी देह सटाक चाबुक मारती है। उनका चेहरा भरा-भरा लगता है। कितना भी ढाँप लो, हम सुंदर लगेंगे ही। यही अंतर है, ईरानी महिलाओं और अन्य इस्लामिक देशों की महिलाओं में, इनकी अपेक्षा ईरानी महिलाएँ तमाम बंदिशों के बावजूद अपनी ख़ूबसूरती को क़ायम रखती हैं। लगता है मानो ख़ुदा का सारा नूर ही चुरा लाई हों। यही नहीं वे बौद्धिक रूप से भी उन्नत हैं, आप उन्हें हर जगह देख सकते हैं, वैज्ञानिक के रूप में, दफ़्तरों में, कॉलेजों में, कैनवस पर, काग़ज़ पर, एयर होस्टेस के रूप में, गाइड के रूप में, और तो और रात्रि होटलों में बैरों के रूप में भी सर से हिजाब उतरता नहीं, लेकिन ख़ुदा का नूर चढ़ता रहता है। 

पुस्तक में यूरोपीय देशों के विविध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पक्ष का भी आकलन किया गया है। पुस्तक पठनीय और ज्ञानवर्धक भी है। पुस्तक पढ़कर एकसाथ एशियाई एवं यूरोप के कई देशों के भ्रमण करने का अनुभव से गुज़रा हूँ। मैं लेखिका रति सक्सेना को उनके लेखकीय उत्तरण के लिए तहेदिल से बधाई देता हूँ। 

संपर्कः खांखलाबारी, उदालगुड़ी-784509, बीटीआर, असम 7002580050 (मो) 
Email: baidyanathupadhyaya06@gmail.com
 

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