अपने हिस्से के पानी की तलाश
समीक्षा | पुस्तक चर्चा प्रो. ऋषभदेव शर्मा16 Nov 2008
“नदियों के बँटवारे को लेकर/कोर्ट के फैसले के विरुद्ध/लगा दी गई है पानी में आग/और जला दी गई हैं बसें....!/
“इस आहूत बंद में/यह जलती हुई कावेरी, कृष्णा और गोदावरी/कहाँ जाकर करेगी फरियाद?/क्या इन सबकी सुनवाई/समुद्र करेगा?/
“फिलहाल समुद्र में नदियाँ/अपने हिस्से का पानी तलाश रही हैं!/अपनी अपनी नदियों के पक्ष में/रहनुमा खटखटा रहे हैं आंदोलन का द्वार!/और पानी में मछलियाँ/लामबंद हो रही हैं इनके खिलाफ़।“
यह ’स्वाधीन’ शशि नारायण ’स्वाधीन’ के नए कविता संग्रह ’समुद्र में नदियाँ(२००८) की शीर्ष-कविता है। छोटे-छोटे तीन खंडों में बँटी यह कविता पहले खंड में पत्रकार-कवि की अपने समसामयिक परिवेश और घटनाचक्र के प्रति संवेदनशीलता से आरंभ होकर दूसरे खंड में प्रश्नाकुलता में बदल जाती है। पहले खंड का साक्षी भाव यहाँ आकर अपनी तटस्थता खो देता है और समाचार की सनसनी कविता की बेचैनी में बदलने लगती है। अपने जनवादी रुझान के बावजूद यहाँ कवि धार्मिक परंपरा से गृहीत मिथक का सहारा लेता है। नदियाँ हों या पृथ्वी – जब अत्याचार की आग के सामने विवश हो जाती है तो क्षीर-सागर में शेष-शय्या पर सोए करुणानिधि केशव को पुकारती हैं। धार्मिक विश्वास के बावजूद सच्चाई यही है कि किसी नदी को, किसी धरती को, बचाने के लिए किन्हीं आसमानों से उतरकर कोई भगवान और फ़रिश्ते नहीं आते। सबको अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ती है। इसीलिए तीसरे खंड में कविता नदियों के माध्यम से अपने अधिकार के प्रति जागरूक होती जनता की ओर संकेत करती है। पर ज्यों ही ये नदियाँ समुद्र में अपने हिस्से का पानी तलाश करने निकलती हैं, त्यों ही मुद्दों की टोह में बैठे हुए तथाकथित राजनैतिक रहनुमा आंदोलन की तख्तियाँ लेकर सामने आ जाते हैं और नदियों का बँटवारा अपने अपने हक में कर लेते हैं – समुद्र अपनी जगह ठाठें मारता रहता है और नदियाँ आपस में भिड़ जाती हैं। सारे जनांदोलन इन मुद्दाखोर नेताओं के हाथ में जाकर इसी तरह तबाह हो जाते हैं। लेकिन कवि को हताशा स्वीकार नहीं। वह कवि ही क्या जो नई संभावना की आहट न सुन ले। वही आहट इस कविता की अंतिम पंक्तियों में सुनाई देती है – ’और पानी में मछलियाँ लामबंद हो रही हैं इनके खिलाफ़’! यहाँ आकर कविता पानी-पानी की क्षेत्रीय लड़ाई नहीं रहती, राजनीति और अपराध के हर अपवित्र गठजोड़ के विरुद्ध संगठित हो रहे आम आदमी के संघर्ष में शामिल हो जाती है।
ऐसी कई सप्रयोजन और सार्थक कविताएँ ’स्वाधीन’ के इस कविता संग्रह में सम्मिलित हैं और आज के मनुष्य की चिंताओं और चेतना को सटीक और सचोट अभिव्यक्ति प्रदान करती हैं।
स्वाधीन के कविता-सरोकारों में प्रेम भी शामिल है और राजनीति भी, प्रकृति भी शामिल है और परिवार भी। वे फुटपाथ पर सजी पुरानी किताबों में वर्षों पूर्व खोए अपने चेहरे को तलाशते हैं – चेहरे की अहमियत तभी समझ में आती है जब हम चेहराहीन हो जाते हैं; तभी हम इतिहास और स्मृति की शरण में जाते हैं। ऐसे में कविता स्वयं स्मृति का पर्याय बन जाती है तथा किसी की आँखों, होंठों और मुस्कान की यादें व्यथित करने के बावजूद घायल परिंदे की तरह फड़फड़ाते यातनाग्रस्त मन को आश्वस्ति प्रदान करती हैं – अंतिम क्षण में साँसों में गूँजते अपने इष्ट के नाम की तरह! यह यातना कवि स्वाधीन के मुख्य पाठ का निर्माण करती है – इसमें स्मृति और विस्मृति का द्वंद्व है, मौन और चीत्कार की कशमकश है, आत्मवृत्त और लोकवृत्त का सामंजस्य है, रिश्तों की शतरंज पर वृद्धावस्था का देश निकाला है, रोटी पकने की सुगंध से जकड़ा भूख से बिलबिलाता बचपन है, शहर के नाम पर अँधेरा और आदमी के नाम पर सन्नाटा है, शाम को पेट के बल घिसटता अभिशप्त कुबड़ा सूरज है। व्यवस्था के तमाम अमानुषिक यथार्थ के खिलाफ़ खड़ी जनशक्ति है – “और तुम विधान सभा में/किसानों की आत्म हत्याओं पर/अपना झूठा बयान दे रहे हो/लेकिन जनता बाहर खड़ी है/तुम्हारी प्रतीक्षा में/अपने समय-शस्त्र के साथ।“
इस सबके बीच कवि की जिजीविषा का स्रोत वह प्यार है जिसके संबंध में निकटता के बावजूद दूर चले जाने का अंदेशा सदा बना रहता है – “बहुत करीब हो तुम/न जाने ये मौसम/ये वक़्त/यूँ ही पास रहे न रहे!” कहीं-कहीं लगता है कि कवि स्वयं अपने कल के बारे में आश्वस्त नहीं है। ’वे दिन’ में बचपन को फिर से जीने की ज़िद इसी असामयिक मृत्युभय का परिणाम प्रतीत होती है। जो सुंदर था, उसे कवि एक बार फिर जी लेना चाहता है – “ जहाँ हम मिले थे/वहीं आज फिर तुमसे मिलने को जी चाहता है।“
पंद्रह कविताओं के अलावा इस संग्रह में सत्ताईस ग़ज़लें भी हैं। स्वाधीन शेर खूब कहते हैं। ग़ज़ल विधा पर उनका अधिकार है। उनका राजनैतिक और विद्रोही तेवर यहाँ भी बरकरार है – स्मृति और यातना के द्रावक पाठ के साथ साथ। लेकिन हिंदी के मेरे जैसे साधारण पाठक को उनकी ग़ज़लों की भाषा कहीं-कहीं तो कठिन काव्य के प्रेते सरीखी लगने लगती है। हमारे कई जानकारी दोस्त जब ग़ज़ल कहते हैं तो पता नहीं कौन सी भाषिक कुंठा उनकी जबान को जकड़ लेती है और वे आमफ़हम हिंदी-उर्दू के बजाय अरबी-फ़ारसी उगलने लगते हैं। कई बार तो पाकिस्तानी ग़ज़लों की भाषा इन ग़ज़लों से ज्यादा हिन्दुस्तानी लगती है। लेकिन जहाँ कहीं ’स्वाधीन’ ने सहज भाषा लिखी है, वहाँ-वहाँ ग़ज़ल में कमाल दिखाया है –
“चिलम चढ़ाए शाम धुएँ को आँखों में छितराती सी\
पेड़ के नीचे बैठ गई है जाती हुई अघोरी धूप॥“
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