दिल्ली से उठते हैं बादल और हवा में बह जाते हैं
काव्य साहित्य | कविता प्रो. ऋषभदेव शर्मा1 Sep 2023 (अंक: 236, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
(तेवरी)
दिल्ली से उठते हैं बादल
और हवा में बह जाते हैं
रेत नहाते हुए परिंदे
गगन ताकते रह जाते हैं
झुलस-झुलस कर एक-एक कर
सारे पीपल ठूँठ हो रहे
भीषण लूओं को ये बरगद
जाने कैसे सह जाते हैं
दरबारों में दीन जनों की
सुनवाई की जगह नहीं है
फिर भी वे कुर्सी के आगे
सिसक-सिसक कर कह जाते हैं
गाँव घेर कर बड़ी हवेली
बड़े चौधरी बना रहे हैं
घास-फूस के छप्पर वाले
घर तो ख़ुद ही ढह जाते हैं
ओझा-गुनी बड़े आए थे
लंबे-चौड़े वादे लेकर
कठिन सवालों के आते ही
यह जाते हैं, वह जाते हैं
अम्मा ने कितना समझाया
मिलकर रहना ही ताक़त है
राजनीति के दावानल में
नाज़ुक रिश्ते दह जाते हैं
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