अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

प्राचीन भारत में खेल-कूद : स्वरूप एवं महत्व

समीक्षक- ऋषभदेव शर्मा 

बहुज्ञ, बहुपठ, बहुश्रुत और निरंतर अध्यवसायपूर्वक शोधदृष्टि से काम करनेवाले अवधेश कुमार सिन्हा (9 सितंबर, 1950) की पुस्तक “प्राचीन भारत में खेल-कूद (स्वरूप एवं महत्व)” (2018, हैदराबाद : मिलिंद) भारतीय इतिहास के एक नितांत अचर्चित पहलू का उद्घाटन करने वाली शोधपूर्ण मौलिक रचना है। 

इस ग्रंथ में लेखक ने साहित्यिक और साहित्येतर विविध भौतिक साक्ष्यों के आधार पर प्राचीन राज-समाज और जन-समाज के मनोरंजन से लेकर आजीविका तक से जुड़े खेलों के इतिहास की विकासरेखा प्रस्तुत की है, जो बड़ी सीमा तक भारतीय सभ्यता के इतिहास की भी विकासरेखा होने के कारण और भी रोचक, उपादेय और ज्ञानवर्धक बन गई है। हवाले भले ही राजाओं के हों, खेल तो आम जन के भी थे न! शतरंज हो या जलक्रीड़ा, या फिर मृगया, प्राचीन भारतीय समाज ने इन्हें विधिवत नियमित खेलों का रूप दिया, इसमें कोई संदेह नहीं। खेलों का यह इतिहास हमारे प्राचीन साहित्य में बिखरा पड़ा है। लेखक ने इसे सहेज कर कालक्रम के अनुसार विवेचित किया है, जो शायद हिन्दी में अपनी तरह का पहला कार्य है!

बिखरे साक्ष्यों के आधार पर इतिहास की रूपरेखा रचते समय यह एक स्वाभाविक चुनौती सामने आती है कि साहित्य में उपलब्ध उल्लेखों को उनके काल के संदर्भ में प्रमाणित कैसे किया जाए। यह ठीक है कि हमारे प्राचीन साहित्य में बहुत सारा इतिहास गुंथा हुआ है, लेकिन समस्या यह है कि, हमारा यह इतिहास लिखा कब गया? इसका सटीक और निर्भ्रांत उत्तर ही किसी घटना के काल-निर्धारण का आधार बन सकता है। उदाहरण के लिए, महाभारत में जिन खेलों का उल्लेख मिलता है, उन्हें इस महाकाव्य के लेखन काल का माना जाए अथवा उस युग का जब महाभारत की घटनाएँ वास्तव में घटित हुई होंगी। (आज उपलब्ध पाठ मूल घटना के बहुत बाद का है!) काल निर्धारण की इस समस्या का निराकरण अवधेश कुमार सिन्हा ने साहित्येतर सामग्री के आधार पर किया है। अतः यह कहा जा सकता है कि उनका यह ग्रंथ दोहरी प्रामाणिकता से युक्त और विश्वसनीय है। अन्यथा इसमें दो राय नहीं कि ज्ञात इतिहास से पहले का एक बड़ा अँधेरा इलाक़ा है जिसमें गोता लगाने के लिए अवधेश कुमार सिन्हा उतरे। उस अँधेरे इलाक़े में जाकर वे ‘प्राचीन भारत में खेल-कूद : स्वरूप एवं महत्व’के रूप में कुछ ‘तेजस्क्रिय मणिदीप’ खोज कर लाए हैं जिनसे भारतीय सभ्यता के विकास का रहस्यलोक कुछ तो आलोकित अवश्य ही हुआ है।

यहाँ यह सवाल उठना भी वाजिब है कि, आज अर्थात इक्कीसवीं शताब्दी में इस किताब की ज़रूरत क्या है? इसका सीधा सा जवाब है कि यह जो खेल-कूद नाम की चीज़ है, यह  मुझे मेरी संस्कृति के क़रीब ले जाती है। यह मुझे मेरी जड़ों से जोड़ने का काम करती है। यह मुझे बताती है कि मेरी जड़ें कितनी पुरानी हैं। इसके अलावा, यह पुस्तक केवल प्राचीन भारत में खेल-कूद के इतिहास तक ही सीमित नहीं है, बल्कि प्रसंगवश प्राचीन भारत के साथ ही उसके समकालीन विश्व में खेल-कूद की दशा-दिशा से भी परिचित कराती है। लेखक ने अत्यंत परिश्रमपूर्वक प्राचीन साहित्य और उसके समानांतर प्राप्त ऐतिहासिक साक्ष्यों का अवगाहन करके भारत और शेष विश्व के सभ्यता-विकास का एक तुलनात्मक खाका पेश किया है। 

यदि यह कहा जाए कि इस ग्रंथ ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के "प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद" (1963) की परंपरा को आगे बढ़ाया है, तो अतिशयोक्ति न होगी। चौदह विद्याओं और चौसठ कलाओं की चर्चा यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि प्राचीन भारतीय लोक उत्सवप्रिय और क्रीड़ाजीवी था। साहित्य से लेकर मूर्तियों, शिलालेखों तथा अन्य भौतिक प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि द्यूत और रथ-दौड़ से लेकर जलयुद्ध और दृष्टियुद्ध तक में राजन्यवर्ग से लेकर सामान्यवर्ग तक की व्यापक भागीदारी थी। मनोरंजन, आजीविका और उत्तरजीवन की चुनौतियों के बीच आदिम काल से जिस प्रकार के वीरतापूर्ण और मस्तीभरे मनोविनोद का विकास विश्व की अलग अलग सभ्यताओं ने किया, उसके विश्लेषण द्वारा मनुष्यता के विकास की रूपरेखा बनाई जा सकती है। ज्ञानक्षेत्र के इस विस्तार की दृष्टि से अवधेश कुमार सिन्हा का यह ग्रंथ अत्यंत उपादेय, मननीय और संग्रहणीय है। 

इस ग्रंथ के बारे में ठोक-बजा कर यह कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ पूरी तरह तथ्यों पर आधारित है और लेखक ने प्रमाणिकता का सर्वत्र ध्यान रखा है। वह कहीं भी भावुकता में बहकने के लिए तैयार नहीं है और किसी भी शोध कार्य से, वह भी इतिहास के शोध कार्य से, ऐसी ही अपेक्षा की जाती है। इस विषय में बहकने की काफ़ी गुंजाइश थी  चूँकि आधार के रूप में साहित्य का इस्तेमाल किया गया है जिसकी अनेकविध व्याख्या संभव है। लेकिन यहाँ लेखक के सामने अपना लक्ष्य स्पष्ट है अतः वे बिना बहके और भटके, खेलकूद के बहाने, बार-बार भारतवर्ष की सांस्कृतिक परंपरा, जीवनदर्शन की चिंताधारा और सभ्यता की विकास-सरणि को  रेखांकित करते चलते हैं। अभिप्राय यह कि यह पुस्तक खेलकूद के पाठक के लिए नहीं है, बल्कि संस्कृति, इतिहास और सभ्यता का विकास समझने के लिए एक संदर्भ ग्रंथ है।  इसमें तथ्यात्मकता और प्रमाणिकता है। और एक बड़ी चीज़ जो किसी भी वैज्ञानिक लेखन में होनी चाहिए वह है क्रमिकता। यहाँ चीज़ें क्रमशः आगे बढ़ती हैं। लेखक अपने पाठक को विधिवत एक एक सोपान आगे ले जाते हुए सिंधु सभ्यता से वैदिक काल, सूत्र काल, मौर्य काल, गुप्त काल तक ले आता है। इस ज्ञानयात्रा को और भी समृद्ध बनाते हैं, दो परिशिष्ट – प्राचीन भारत के परवर्ती काल में खेल-कूद का स्वरूप तथा अन्य समकालीन सभ्यताओं/देशों में खेलों का स्वरूप। परंपरा के विकास और समकालीन विश्व से जुड़े संदर्भ इस ग्रंथ को अतिरिक्त महत्वपूर्ण बनाते हैं।

अंतत:, भाषा और शैली की दृष्टि से अत्यंत ही सहज और प्रांजल हिंदी में लिखा हुआ यह ग्रंथ इतिहास के अध्येताओं से लेकर सामान्य जिज्ञासु पाठकों तक के लिए पठनीय है। कई जगह तो ऐसा लगता है कि जैसी औपचारिक हिंदी अवधेश जी प्रायः ‘बोलते’ हैं, उसकी तुलना में उनके ‘लेखन की भाषा’ अधिक लचीली और ललकभरी है, जो पाठक को बाँध लेती है। अतः इसे पढ़ने के लिए शोधार्थी होना बिल्कुल ज़रूरी नहीं, शोध-दृष्टि हो यह ज़रूरी है।

ऋषभदेव शर्मा 
[पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष,
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद]
आवास : 208 -ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स,
 गणेश नगर, रामंतापुर,
हैदराबाद - 500013

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख

पुस्तक समीक्षा

कविता

ललित निबन्ध

दोहे

सांस्कृतिक आलेख

स्मृति लेख

साहित्यिक आलेख

पुस्तक चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं