प्रिये चारुशीले
काव्य साहित्य | कविता प्रो. ऋषभदेव शर्मा10 Oct 2010
(प्रिये चारुशीले मुंच मयि मानमनिदानम्
सपदि मदनानलो दहति मम मानसम्
देहि मुखकमल मधुपानम् !
गीतगोविंद, दशम सर्ग)
प्रिये चारुशीले !
उन्होंने मुझे भ्रमर कहा
और तुमने मान लिया,
मेरे प्रेम को जानते हुए भी
मुझे त्याग दिया।
पास आना चाहा
तो रोक दिया हाथ के इशारे से।
छूना चाहा
तो दे दिया देश-निकाला
तर्जनी उठाकर।
देखो, अब तो सूरज ढल गया,
मैं दिन भर धूप में खड़ा रहा
तुम्हारे संकेत की प्रतीक्षा करता,
पर बुलाया नहीं तुमने।
दिन भर सुलगती रहीं तुम भी तो,
दहकती रहीं अपनी ही आँच में।
देखो, अब तो सूरज ढल गया
ढल जाने दो इस ताप को भी।
दहक तुम रही हो
सुलग तुम रही हो
और जल रहा है मानसरोवर
पिघल रहा है हिमालय।
जो मन्मथ के किए न हुआ,
मानिनी! तुम्हारे रोष ने कर दिया।
इस आग को अमृत बना दो
मुख-कमल की माधुरी के दान से।
*
प्रिये चारुशीले !
सुनो तो –
मुझे कुछ नहीं कहना है
अपनी सफाई में।
जब तुमने
दोषी मान ही लिया मुझे,
तो हाँ, मैं हूँ दोषी;
दंड का अधिकारी।
राजराजेश्वरी !
भूखे आदमखोर शेर छोड़ दो मेरे ऊपर –
चिर जाने दो नाखूनों से मेरा वक्षस्थल,
क्षत-विक्षत हो जाने दो पैने दाँतों से
मेरी बाँहों और जंघाओं को।
शायद इस तरह
तृप्त हो तुम्हारी प्रतिहिंसा
और मिट जाएँ मेरे अंग-अंग पर लगे
मिथ्या लांछन।
सच मानो,
उस वासंती रात में कोई भी तो नहीं था मेरे पास,
सिवा तुम्हारे।
मेरे पास
कभी कोई हो भी कैसे सकता है
सिवा तुम्हारे?
एक तुम ही तो व्यापती हो, राधा !
मेरे भीतर –
बाहर
चहुँदिश;
बस यों ही सहा नहीं जाता
यह तुम्हारा अकारण रोष !
*
प्रिये चारुशीले !
बहुत भोली हो तुम।
नहीं जानतीं, तुम क्या हो मेरे लिए.
राधिके ! तुम मेरा शृंगार हो,
मेरा जीवन हो तुम।
जाने कितने जन्म लिए मैंने,
मथ डाले समुद्र जाने कितने,
जाने कहाँ-कहाँ खोजता फिरा तुम्हें
काल के प्रवाह में अनादि से अनंत तक।
मैं सदा का दरिद्र,
और तुम –
सदा की लक्ष्मी
दुर्लभ रत्न सरीखी !
तुम्हारा कोप भी प्रेम ही है तुम्हारा।
मेरा हृदय तुम्हारा हृदय हो गया है।
राधिके ! शृंगार हो तुम मेरा,
दुर्लभ रत्न हो –
मेरा जीवन हो;
मेरा हृदय हो तुम !
तुम्हारे प्रेम को जानता हूँ मैं,
मेरे प्रेम से परिचित हो तुम
अब खुल जाने दो हृदय को।
देखो, अब तो सूरज ढल गया,
ढल जाने दो ह्रदय में हृदय को।
*
प्रिये चारुशीले !
रक्त कमल-सी दहक रही हैं तुम्हारी कजरारी आँखें
और पछाड़ें खा रहा है मानसरोवर तप-तपकर.
पुष्पधन्वा ने नहीं, तुमने
पराजित किया है कृष्ण को।
तुम्हारी दृष्टि में प्रखर शर भी हैं
और दुर्निवार पाश भी।
लो, मैं घायल भी हुआ
और बँध भी गया !
*
प्रिये चारुशीले !
अब मुस्करा दो,
प्रस्तुत है तुम्हारा अपराधी,
तुम्हारा कृष्ण।
तुम्हारे हर आदेश का पालन करेगा
तुम्हारा यह घायल कैदी।
अब क्रोध को जाने भी दो,
जाने दो संकोच को भी;
हिलने दो हृदय के हार को,
बजने दो करधनी के घुँघरुओं को।
उठाओ तो सही अपने कोमल चरण;
कब की इच्छा थी –
इन तलुओं को सरस महावर से रँगने की !
पूरी हो जाने दो आज वह चाह !
*
प्रिये चारुशीले !
तुम्हारा अपराधी तुम्हारे सामने नतमस्तक है।
आज यह भी हो जाने दो –
ठुकराओ, राधा ठकुरानी!
मेरे मस्तक को ठुकराओ |
गीले महावर में रचे तुम्हारे चरण
मुझे अशोक कर देंगे
और मेरे मस्तक पर खिल उठेंगे
तुम्हारी प्रीति के सहस्रों कमल !
*
प्रिये चारुशीले !
तुम्हारी प्रीति अमृत है,
वासना के विष को काटती है।
नव पल्लव से सुकोमल इन चरणों में
रख दिया है मैंने अपना सिर;
लो देखो, शांत हो गई सारी दारुण ज्वाला !
*
सूरज कब का ढल चुका,
अब तो मुस्कान की चाँदनी बरसा दो !
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