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शब्दहीन का बेमिसाल सफ़र - डॉ. गोपाल शर्मा

समीक्षित कृति : संपादकीयम् (लेख/ पत्रकारिता)
लेखक : ऋषभदेव शर्मा
आईएसबीएन : 97893-84068-790
प्रकाशक : परिलेख, नजीबाबाद
वितरक : श्रीसाहिती प्रकाशन, हैदराबाद 
मोबाइल +91 98499 86346

‘संपादकीयम्’ पुस्तक में संकलित और ‘डेली हिंदी मिलाप’ में पूर्व प्रकाशित विभिन्न सामयिक विषयों पर डॉ. ऋषभदेव शर्मा द्वारा लिखे गए ‘संपादकीय’ हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में पदार्पण करने के इच्छुक और अनुभवी दोनों प्रकार के पत्रकारों के लिए समान रूप से पठनीय हैं, क्योंकि इनमें आदर्श संपादकीय के सभी गुण हैं। विषय-चयन और शीर्षक के चुनाव से लेकर वर्णन की सहज शैली से होते हुए उनके समापन संदर्भ तक लेखनी का गतिशील रहना पाठक को अनायास ही बाँधता चला जाता है। 

संपादकीय–शीर्षकों पर नज़र दौड़ाते ही ठहर जाती है। कहीं प्रश्न हैं- अब किसके पिता की बारी है? कहीं विस्मययुक्त प्रश्न- सबका अन्नदाता हड़ताल पर है !? कहीं कविता के शिल्प में- जलाओ पटाखे पर रहे ध्यान इतना; और कहीं लोक और लोकवाणी सिंचित- ऊपरवाला देख रहा है! 

और फिर आता है- लीड वाक्य। संपादकीय वह उत्तम माना जाता है जिसमें पाठक को बेकार में ही वर्णन-विवरण की हवाई पट्टी पर न दौड़ना पड़े। उसकी उड़ान हैलीकॉप्टर सी बुलंद और उत्तुंग हो। इस निगाह से ये संपादकीय प्रिंट-मीडिया के पहले पाठ को आत्मसात करके लिखे गए लगते हैं। पहला वाक्य सब कुछ तो कहता ही है, और कुछ पढ़ने की ललक भी जगाता है। एक उदाहरण है - ‘मी टू अभियान के तहत मनोरंजन उद्योग, मीडिया, राजनीति, शिक्षा जगत और अध्यात्म की दुनिया तक से महिलाओं के यौन उत्पीड़न की घटनाओं के ख़ुलासों से आम लोग सहमे हुए हैं।’ 

इसी प्रकार संपादकीय का समापन वाक्य चिंतन का समाहार उपसंहार की तरह करता है और पाठक को वांछित ‘फ़ूड फ़ॉर थॉट’ देता चलता है- ‘जब तक व्यवस्था की ओर से यह संदेश आपराधिक तत्वों तक नहीं जाएगा, तब तक वे भीड़ का मुखौटा लगाकर इसी तरह उपद्रव मचाते रहेंगे , हत्याएँ करते रहेंगे और हर बार किसी बेटे को यह पूछना ही पड़ेगा कि- अब किसके पिता की बारी है?’

लेखन में शब्दों की धार यूँ तो सहजता को निभाती चली है, किंतु मार्मिक स्थलों पर धार नुकीली भी हो जाती है – धनुष की टंकार हो जाती है। ‘समानता और पूजा-पद्धति के अधिकारों का टकराव’ और ‘परंपरा के नाम पर भेदभाव कब तक’ में लेखक धर्म और उपासना जैसे नाज़ुक मसलों पर क्षुब्ध होकर कहता है- “यदि प्रभु के राज्य में भी असमानता-पूर्ण नियम लागू हैं तो या तो वह राज्य प्रभु का नहीं (पुजारियों का है), या फिर वह नियम प्रभु का नहीं (दरबानों का है)।”

अपने वक्तव्यों को धार देने के लिए और उपसंहार करने के लिए कई बार लेखक के मन में उकड़ू बैठने को मजबूर सा हो गया कवि तेवरी चढ़ाकर काव्य पंक्तियाँ उधार भी लेता है – वैभव की दीवानी दिल्ली – और कभी थोड़ा बदलकर – जलाओ पटाखे पर रहे ध्यान इतना – बोलता है; और कभी फ़िलहाली बयान करने के लिए कह उठता है- भीड़ पर तलवार हैं, खंजर गुलेले हैं। कल्लो क्या कल्लोगे ? है तो है। चुटकी ली जाए तो चुटकी लगे और चूँटी काटी जाए तो वही लगे। ऐसे अवसर भी रंदे पर घिसे गए, पर पेशे खिदमत रहे हैं- ‘खूब नाच-गाना हो, शराबे बहें, उपहार लिए-दिए जाएँ, उन्माद की वर्षा हो, वशीकरण के लिए यह जरूरी है । बार में भी, और चुनाव में भी।’ 

कहा जाता है कि अख़बारी दुनिया से जुड़ने के बाद भाव, भाषा, भंगिमा और भूमिका को नए सिरे से साधना पड़ता है और लोगों को बहुत उठना-गिरना पड़ता है। वे और होंगे शोर-ए-तलातुम में खो जाने वाले! ‘संपादकीयम्’ में ‘कोरे कागद’ कारे भर नहीं किए गए हैं, बल्कि एक युगधर्म का पालन भी किया गया है। इसलिए ‘भव’ साधना संभव हुआ है। लगता है, यह खेल-खेल में ही हो गया है; और जो हुआ वो ग्रेट है। तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालने के दिन अब नहीं रहे, पर तलवार की धार पर दौड़ने वाले दीवानों को कोई ‘रवि’ तभी प्रकाशित कर सकता है, जब क़लम में कमाल हो और उसकी श्री वास्तव में हो! 

‘संपादकीयम्’ के इस पाठ को लिखने से किसी पत्रकारिता महाविद्यालय में फ़ीस भरे बिना मुझे पहला पाठ मिल गया। इसका शुक्रगुज़ार होना बनता है। यह भी मेरा फ़र्ज़ बनता है कि नाई की ताईं आपको बुलावा दे दूँ, ‘परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद’ से प्रकाशित इस मोर-पंखी पुस्तक के साथ फ़र्स्ट डेट पर ज़रूर-बेज़रूर जाना। दूसरी-तीसरी किताब की प्रतीक्षा न करना; वे पाइप-लाइन में हैं। 

-    गोपाल शर्मा 
प्रोफेसर, अंग्रेजी विभाग,
अरबा मींच विश्वविद्यालय, अरबा मींच, इथियोपिया। 
prof.gopalsharma@gmail.com 
 

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