देश : दस तेवरियाँ
काव्य साहित्य | कविता प्रो. ऋषभदेव शर्मा27 Oct 2018
(1)
अब न बालों और गालों की कथा लिखिए
देश लिखिए, देश का असली पता लिखिए
एक जंगल, भय अनेकों, बघनखे, खंजर
नाग कीले जायँ ऐसी सभ्यता लिखिए
शोरगुल में धर्म के, भगवान के, यारो!
आदमी होता कहाँ-कब लापता? लिखिए
बालकों के दूध में किसने मिलाया विष?
कौन अपराधी यहाँ? किसकी ख़ता? लिखिए
वे लड़ाते हैं युगों से शब्दकोषों को
जो मिलादे हर हृदय वह सरलता लिखिए
एक आँगन, सौ दरारें, भीत दीवारें
साज़िशों के सामने अब बंधुता लिखिए
लोग नक्शे के निरंतर कर रहे टुकड़े
इसलिए यदि लिख सकें तो एकता लिखिए
(2)
बौनी जनता, ऊँची कुर्सी, प्रतिनिधियों का कहना है
न्यायों को कठमुल्लाओं का बंधक बनकर रहना है
वोटों की दूकान न उजड़े, चाहे देश भले उजड़े
अंधी आँधी में चुनाव की, हर संसद को बहना है
टोपी वाले बाँट रहे हैं, मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे
इस बँटवारे को चुप रहकर, कितने दिन तक सहना है
देव तक्षकों के रक्षक हैं, दूध और विष की यारी
मेरठ या कश्मीर सब कहीं, यही रोज़ का दहना है
हम प्रकाश के प्रहरी निकले, क़लमें तेज़ दुधारी ले
सूरज इतने साल गह चुका, राहु-केतु को गहना है
(3)
एक ऊँचा तख़्त जिस पर भेड़िया आसीन है
और मंदिर में सँपेरा मंत्रणा में लीन है
बात पगड़ी और टोपी की यहाँ तक बढ़ गई
नाचते षड्यंत्र, बजती देशद्रोही बीन है
दे रहे उपदेश में गुरु गोलियाँ उन्माद की
आज पूजा के प्रसादों में मिली कोकीन है
शूल पाँवों के निकालें, शूल लेकर हाथ में
यह समय की है ज़रूरत, नीति यह प्राचीन है
(4)
एक नेता मंच पर कल रो पड़ा
लोग बोले-हो गया अचरज बड़ा
जिस तरफ़ कुर्सी मिले उस ओर ही
दौड़ जाता "देशभक्तों' का धड़ा
सांप्रदायिकता मिटाने के लिए
दल-समर्थित जाति का प्रतिनिधि खड़ा
एक चिड़िया ने तड़प कर यों कहा
हर समुंदर स्नान से इनके सड़ा
कब घड़ी होगी कि जब यह जनसभा
फोड़ देगी पाप का इनके घड़ा
(5)
किसी को भून डालें वे, हाथ में स्टेनगन लेकर
इन्हें क्या, मौत को ये तो, भुना लेंगे चुनावों में
गला जिनका तराशा है, निरंतर पाँच वर्षों तक
उन्हें भी अब गले अपने, लगा लेंगे चुनावों में
कभी जिस गाँव को जाना न देखा, मर रहा कैसे
उसी के अब मसीहा बन, दिखा देंगे चुनावों में
देश टूटे, रहे, जाए, इन्हें क्या काम, इनको तो
सिर्फ़ कुर्सी दिला दीजे, दुआ देंगे चुनावों में
कब्र में पाँव लटके हैं, कंठ में प्राण हैं अटके
बहुत वोटर खरीदेंगे, जिता देंगे चुनावों में
खिलाड़ी मंच पर उतरे, मदारी मंच के पीछे
बहुत कीचड़ आँकड़ों की उछालेंगे चुनावों में
लगाकर घात बैठे हैं, पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों ही
बहुत चालाक मछुए ये, फँसा लेंगे चुनावों में
हमारे हाथ में मोहर, हमारे हाथ में मुहरा
दुरंगे लोकद्रोही को, सज़ा देंगे चुनावों में
(6)
अब भारत नया बनाएँगे, हम वंशज गाँधी के
पुस्तक-अख़बार जलाएँगे, हम वंशज गाँधी के
जनता की पीर हुई बासी, क्या मिलना गाकर भी
बस वंशावलियाँ गाएँगे, हम वंशज गाँधी के
बापू की बेटी बिकी अगर, इसमें हम क्या कर लें
कुछ नारे नए सुझाएँगे, हम वंशज गाँधी के
खाली हाथों से शंका है, अपराध न हो जाए
इन हाथों को कटवाएँगे, हम वंशज गाँधी के
रथ यात्रा ऊँची कुर्सी की, जब-जब भी निकलेगी
पैरों में बिछते जाएँगे, हम वंशज गाँधी के
(7)
मंच पर केवल छुरे हैं, या मुखौटे हैं
हो गए नाखून लंबे, हाथ छोटे हैं
वे भला कब बाज़ आए, खून पीने से
योजना छल-छद्म हिंसा, कर्म खोटे हैं
हम न समझौता करेंगे, चाकुओं से इन
देश की पसली अभी ये, चीर लौटे हैं
यों धमाके रोज़ घर में जो रहे होते
गिर पड़ेंगे ये बच्चे जो भीत ओटे हैं
हाथ मंत्रित शूल लेकर, यार ! निकलो अब
हर सड़क पर हर गली में, साँप लोटे हैं
(8)
माना कि भारतवर्ष यह, संयम की खान है
झंडे के बीच चक्र का, लेकिन निशान है
अब क्यों न फूल हाथ में तलवार थाम लें
जब तीर बन हवा चली, झोंका कमान है
पागल हुआ हाथी, इसे गोली से मार दें
यह राय बस मेरी नहीं, सबका बयान है
संसद बचा सकी नहीं, कुर्सी ने खा लिया
कितना निरीह देश का, यह संविधान है
उबला समुद्र शांति का, थामे न थमेगा
इसको न और आँच दो, किस ओर ध्यान है
(9)
नस्ल के युद्ध हैं
रंग के युद्ध हैं
युद्ध हैं जाति के
धर्म के युद्ध हैं
मेल को तोड़ते
भेद के युद्ध हैं
देश के तो नहीं
पेट के युद्ध हैं
लोक सेवा कहाँ ?
वोट के युद्ध हैं
जीतने जो हमें
सोच के युद्ध हैं
(10)
पाक सीमा पर बसे इक, गाँव में यह हाल देखा
षोडशी मणि को निगलता, साठवर्षी ब्याल देखा
जब कभी झाँका किसी के, सोच में, ऐसा लगा बस
सड़ रहीं मुर्दा मछलियाँ, एक गंदला ताल देखा
भीड़ में बिजली गिराते, अग्निमय भाषण सुने औ'
धर्म के नारे उठाकर, कौन चलता चाल देखा
देश की जब बात आई, एक मोमिन ने बताया
"मैं पढ़ा परदेस में हूँ', साज़िशों का जाल देखा
तस्करी की योजनाएँ, अस्त्रशस्त्रों का जख़ीरा
ये मिले जब रोशनी में, खोल करके खाल देखा
जो फ़सल में ज़हर भरती, उस हवा को चीर डालो
गीध खेती नोंचते हैं, द़ृश्य यह विकराल देखा
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