रूपं देहि, जयं देहि
आलेख | ललित निबन्ध प्रो. ऋषभदेव शर्मा3 May 2012
सृष्टि की रचना, स्थिति और संहार के प्रति विस्मित लोक मानस ने विभिन्न समाजों और संस्कृतियों में जिन आद्य रूपों और मिथकों का साक्षात्कार किया, देवी, महामाता या मातृशक्ति उनमें प्रमुख है। हमने इस मातृशक्ति के दर्शन महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के रूप में किए तथा सत्व, रज और तम जैसे गुणों एवं भूत, वर्तमान और भविष्य जैसे कालों को देवी में स्थित, उसी से उत्पन्न और उसी में लय होते देखा। दैनिक जीवन में विविध संबंधों में स्त्री के विविध रूपों में, उसकी विविध भूमिकाओं में देवी का मंगलमय स्वरूप ही तो अभिव्यक्त हो रहा है। इसी से तो ’यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ जैसी मान्यता विकसित हुई। यह विडंबना ही है कि नारी पूजक यह देश कालांतर में नारीनिंदक बन गया! हम जो लगभग हजार बरस गुलाम रहे उसका कारण यही है कि सिद्धांत रूप में बड़ी-बड़ी बातें करने वाले हम अपने पारिवारिक और सामाजिक जीवन में मनुष्य-मनुष्य में भारी भेद करते रहे हैं जिसके परिणामस्वरूप एक तरफ तो समाज का एक बड़ा हिस्सा विकास की मुख्यधारा से कट गया तथा दूसरी तरफ हमारी आधी दुनिया रसोई और बिस्तर तक सिमट कर रह गई।
नहीं, हम बहक नहीं रहे हैं। अपने मूल विषय पर आ रहे हैं। जिस समाज में नन्हीं सी बच्ची को भी ’अम्मा’ और ’इमा’ जैसे मातृ वाचक संबोधनों से बुलाया जाता हो, वह समाज मातृहंता कैसे बन गया? जिस समाज ने संपूर्ण प्रकृति को माँ कह पूजा है, वह स्त्री विरोधी कैसे हो गया? नहीं, यह नारीनिंदा, यह स्त्री विरोध, यह मातृहत्या हमारा स्वभाव नहीं है। हम तो नारी शक्ति को ही संपूर्ण जगत् में परिव्याप्त देखने के अभ्यस्त हैं। वही तो है जिसके कारण सुकर्मों के पुण्यफल के रूप में श्री संपदा विराजित होती है, वही तो है जिसके प्रति पाप दृष्टि रखने से दरिद्रता की छाया घेर लेती है, वही तो है जो विवेकशील व्यक्ति के मन-मस्तिष्क का संतुलन बनाती है, वही तो है जो सात्विक वृत्ति वालों के मानस में श्रद्धा बनकर प्रतिष्ठित है, और वही तो है जो कुलशील वालों को लज्जाशीलता और निरभिमानता सिखाती है। अपने विविध रूपों में वही सारे विश्व का पालन करने वाली है, विश्वंभरा है -
"या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेश्वलक्ष्मी:
पापात्मनां कृतधियां हृदयेशु बुद्धि:।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नता: स्म परिपालय देवि विश्वम्॥"
मातृशक्ति की यह सर्वव्यापक छवि बराबर हमें प्रेरित करती रहे इसलिए हम बार-बार स्वयं को ’नवरात्र’ के बहाने देवी के समक्ष आत्यंतिक रूप में समर्पित करते हैं। देवी सब कुछ देने वाली है - रूप भी, जय भी और यश भी। लेकिन साथ ही वह शत्रुओं का नाश भी करने वाली है। रूप, जय और यश तब तक अधूरे हैं जब तक द्वेष रखने वाली शक्तियों का नाश न हो। यह बात भौतिक जगत में भी उतनी ही सच है जितनी मानसिक और आध्यात्मिक जगत में। इसीलिए हम देवी के उस रूप की आराधना करते हैं जिसमें वह महिषासुर का मर्दन करती है। देवी सिंहवाहिनी है और महिषासुर साक्षात् महिष है - भैंसा। भैंसा भी ऐसा वैसा नहीं : खूनी भैंसा। खुन्नस सवार है उस पर। खुन्नस विवेकहीनता है। खुन्नस प्रभुता का मद है। खुन्नस आतंकवाद है। खुन्नस पाशविक हिंसकता की पराकाष्ठा है - और उसका प्रतीक है भैंसा, महिषासुर।
जब तक उसे निर्मूल न किया जाए तब तक रूप, जय और यश किस काम के?
महिषासुर निर्णाशि भक्तानां सुखदे नम:।
रूपं देहि, जयं देहि, यशो देहि, द्विशो जहि॥
सिंहवाहिनी देवी और महिषासुर का द्वंद्व वास्तव में सृष्टि की सकारात्मक और नकारात्मक शक्तियों का द्वंद्व है, सत् और असत् का द्वंद्व है। यह द्वंद्व प्रकाश और तमस के बीच भी है और जीवन और मृत्यु के बीच भी। ऐसे अनेक अवसर उपस्थित होते हैं प्रकाश की इस शाश्वत जययात्रा में कि महिषासुर का भैंसापन जीतता हुआ प्रतीत होता है। लेकिन भैंसापन मूढ़ता भर है और उसकी जीत की गर्जना क्षणिक है। गरज ले गरज ले, मूर्ख भैंसे, उतनी देर भर के लिए गरज ले जितनी देर तक देवी मधुपान कर रही है। मधुपान करके उत्साह का संचार करती हुई देवी जब इस क्षणिक विराम के बाद अविवेक, ईर्ष्या, मद और मोहग्रस्तता के प्रतीक महिषासुर पर वार करेगी तो उसकी सारी माया के जाल को ठीक उस क्षण में काटेगी जब अपनी पाशविकता का, हिंसकता का, असुरता का चरम प्रदर्शन कर रहा होगा।
गर्ज गर्ज क्षणं मूढ़
मधु यावत् पिबाम्यहम्।
मया त्वयि हते∙त्रैव
गर्जिष्यंत्याशु देवता:॥
महिषासुर मर्दिनी यह देवी वह चरम सत्ता है जो कभी किसी की अधीनता स्वीकार नहीं करती। उसकी घोषणा है कि वही मेरा पति हो सकता है, जो मुझे संग्राम में पराजित कर दे, जो मेरे दर्प को खंडित कर दे, जो मेरा प्रतिबल हो। यह घोषणा साधारण बात नहीं है, प्रतिज्ञा है। इसमें यह अंतिम सत्य विद्यमान है कि मातृशक्ति सर्वोपरि है। उसे कोई संग्राम में पराजित नहीं कर सकता, उसके दर्प को कोई खंडित नहीं कर सकता और न ही कोई उसका प्रतिबल संभव है। वह युद्ध से नहीं, प्रेम से पराजित होती है। उसका दर्प खंडित कर सकता है केवल कंदर्पविजेता ही-कंदर्प यानि कामदेव। कामदेव को जो हरा दे, वही तो देवी का प्रेमपात्र है। उसका प्रतिबल वही हो सकता है जिसका अपना कोई प्रतिबल न हो - जिसमें बल और प्रतिबल अपना द्वंद्व छोड़कर युग्म भाव से रहते हों। भारतीयों ने देवी के ऐसे पति की कल्पना की - अर्धनारीश्वर के रूप में। यह विश्वंभरा अन्नपूर्णा और वह विश्वंभर चिरभिक्षुक। ऐसे युगल की कल्पना शायद ही दुनिया की किसी और सभ्यता या संस्कृति में मिल सके-
"चिता भस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो
जटाधारी कण्ठे भुजगपति हारी पशुपति:।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
भवानी त्वत्पाणि ग्रहण परिपाटी फलमिदम्॥"
मुग्ध हैं शंकराचार्य इस शाश्वत युगल पर। हे भवानी! यह जो शंकर को ’जगदीश’ की पदवी मिली हुई है, इसका कारण मेरी समझ में आ गया है। शंकर जी ठहरे श्मसानवासी। अंगों में चिता की राख लपेटने वाले। जटा और कंठ में सांपों के हार धारण करने वाले। हाथ में सदा कपाल का भिक्षापात्र लिए रखने वाले। भूतों के स्वामी। पशुओं के पति। भला ऐसे औघड़बाबा को ’जगदीश्वर’ किसने बना दिया? तुमने माँ, तुमने! तुमने मेरे पिता को परमपिता बना दिया। तुमने शंकर का पाणिग्रहण किया तो वे सहज ही भोलेनाथ से विश्वनाथ बन गए। और वह शिव विश्वनाथ होकर भी तेरे सामने आज भी भिखारी है -
"अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकर प्राणबल्लभे।
ज्ञानवैराग्य सिद्धयर्थं, भिक्षा देहि मे पार्वती॥"
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