छब्बीस जनवरी
काव्य साहित्य | कविता प्रो. ऋषभदेव शर्मा10 Oct 2011
लोकतंत्र का पर्व शुभंकर
मंगलमय हो!
तानाशाही मिटे,
उपनिवेशी सोच हटे,
सम्प्रदाय औ' जातिवाद की
धुँध कटे, अँधियार छँटे!
गति को वरें -
प्रगति को चुन लें -
दलबंदी के दलदल में जो
संविधान के पाँव फँसे हैं!
धनबल,भुजबल की कीचड़ में
जन गण जो आकंठ धँसे हैं,
प्राणों की पुकार को
सुन लें!
अब तक का इतिहास यही है :
प्रभुता पाकर
सब
जनता के खसम बन गए!
ऐसा ही होता आया है!
ऐसा ही होने वाला है!!
कब तक
लोक शक्ति मुहताज रहेगी
त्रिशंकुओं के तंत्र मंत्र की ?
लोकतंत्र में जो निर्णय हो
नीर - क्षीर सबके समक्ष हो!
कुर्सीवालों के समक्ष अब
एक समांतर लोकपक्ष हो!!
जो हो,
जनता की इच्छा से तय हो!
लोकतंत्र का पर्व शुभंकर
मंगलमय हो!!
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