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वे विलक्षण थे क्योंकि वे साधारण थे! 

स्वर्गीय त्रिलोचन जी को श्रद्धांजलि

“जीवन मिला है यह
रतन मिला है यह
फूल में मिला है यह
कि धूल में मिला है यह
मोल-तोल इसका कुछ अकेले कहा नहीं जाता
आज मैं अकेला हूँ अकेले रहा नहीं जाता।”

जीवन को अत्यंत सहज भाव से रत्न बताने वाले प्रगतिशील और जनपक्षीय कविता के शिखर-पुरुष त्रिलोचन जी आज हमारे बीच नहीं हैं—अब उनके लिए इस बात का कोई महत्त्व नहीं कि रत्न फूल में मिला है या धूल में। उन्होंने तो भरपूर जीवन जीकर अपने जीवन-रत्न को दोनों ही प्रकार की सार्थकता दी-फूल में मिले तो सुवास बन जाए, धूल में मिले तो लोक से एकमेक हो जाए! यही तो अकेलेपन का दंश झेलते कवि की सही मुक्ति है। 

9 दिसंबर 2007 को सायं 7 बजे हमारी वरिष्ठ पीढ़ी के जनकवि त्रिलोचन जी (त्रिलोचन शास्त्री/वासुदेव सिंह) ने अंतिम साँस ली। उनका जन्म विक्रम संवत 1974 के अधिकमास भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की तृतीया अर्थात्‌ 20 अगस्त 1917 को हुआ था। यानी वे 90 वर्ष के हो चुके थे। परिपक्व आयु भोग कर गए वे। पर फिर भी उनका जाना साहित्य जगत के लिए शोक का विषय है क्योंकि उनके जाने का अर्थ है-मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन, केदार और त्रिलोचन रूपी जनपक्षीय कविता के पंचानन की अंतिम कड़ी का चले जाना। एक महाशून्य छोड़कर गए हैं वे अपने पीछे-जिसकी भरपायी असंभव है, इसलिए शोक का विषय है त्रिलोचन जी का जाना। 

हर बड़ा रचनाकार बुनियादी तौर पर साधारण आदमी होता है। त्रिलोचन जी की विराटता का भी आधार यही साधारणता है। वे विलक्षण हैं, क्योंकि वे साधारण हैं! इतने साधारण जितना बसंत, जितनी बसंत की भाषा:

“सीधी है भाषा बसंत की
कभी आँख ने समझी
कभी कान ने पाई
कभी रोम-रोम से प्राणों में भर आई . . .
एक लहर फैली अनंत की।”

वे सही अर्थों में जनता के कवि थे, जनपद के कवि थे, जन के कवि थे। व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों ही स्तरों पर वे ठेठ गँवई-गाँव की छाप अपने साथ लिए चलते दीखते हैं। इसे सहजता, लोक छटा, सादगी, अकृत्रिमता, फक्कड़पना और हिंदुस्तानियत के रूप में पहचाना जा सकता है। यही कारण है कि उन्हें निकट से जाननेवालों ने सदा यह महसूस किया कि “त्रिलोचन जी से गंभीर से गंभीर विषय पर बात करते हुए कभी यह आभास नहीं होता कि आप किसी ज्ञानी, बहुपठ, बहुश्रुत, अधीत, सिद्ध व्यक्ति से बातें कर रहे हैं। सदैव यही लगता है कि अपने घर में या गाँव की चौपाल में किसी सयाने आदमी के पास बैठे हैं, जिसकी बातों से प्याज़ के छिलके पर छिलके उतरते जाते हैं, जिस की बातें केले के पत्ते के समान होती हैं। त्रिलोचन जी की बात में बात, बात में बात, ज्यों केले के पात में पात, पात में पात।” (डॉ. कांति कुमार जैन)। इसीलिए जिसने भी सुना, यही कहा कि कोई अपना चला गया, परिवारीजन चला गया, बुज़ुर्ग चला गया!
‘गुलाब और बुलबुल’ में त्रिलोचन जी के इस गँवई संस्कार की छवि ख़ूब उभरी है:

“दर्द जो आया तो दिल में उसे जगह दे दी, 
आके जो बैठ गया मुझसे उठाया न गया।”


“क्या करूँ झोली अगर ख़ाली की ख़ाली ही रही, 
अपने बस की बात है फेरी लगा देता हूँ मैं।”

त्रिलोचन जी के चले जाने का एक अर्थ यह भी है कि दुनिया की तीस से अधिक भाषाएँ जानने वाला और शब्दों के कौतुक करने वाला एक शिशु हृदय हमारे बीच से चला गया। एक हृदय जो यह मानता था कि:

“शब्दकार, इन शब्दों में जीवन होता है, 
ये भी चलते-फिरते और बातें करते हैं।”

दरअसल, शब्दों के प्रति इस सहृदयता में ही वे सूत्र निहित हैं जो त्रिलोचन जी को भारतीयता के संस्कार का कवि बनाते हैं—ठेठ भारतीय कवि, जिसकी शिराओं में वाल्मीकि, कालिदास, तुलसी, निराला और कबीर के साथ-साथ मीर, ग़ालिब, नजीर और सुब्रह्मण्य भारती एक साथ संचारित हैं। इसी ठेठपन के बूते वे यूरोपीय ज्ञान को भी भारतीय संस्कार प्रदान कर सके। वे संज्ञाओं के नहीं क्रियाओं के कवि हैं:

“दीवारें दीवारें दीवारें दीवारें
चारों ओर खड़ी हैं, तुम चुपचाप खड़े हो
हाथ धरे छाती पर मानो वहीं गड़े हो
मुक्ति चाहते हो तो आओ धक्के मारें
और ढहा दें, उद्यम करते कभी न हारें।”

इस अनिवार उद्यमशीलता और जीवट के कारण त्रिलोचन जी की कविता अपनी साधारणता में भी सबसे अलग दीपती है:

“है कठिन धूप सिर ऊपर
थम गई हवा है जैसे
दोनों दूबों के ऊपर
रख पैर सींचते पानी
उस मलिन हरी धरती पर
मिलकर वे दोनों प्रानी
दे रहे खेत में पानी।”

त्रिलोचन जी के न रहने का अर्थ है, एक ऐसे जड़ों से जुड़े रचनाकार का न रहना जिसने इसे माना और चरितार्थ किया हो कि “अच्छी कविता पूरा जीवन माँगती है। कवि अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों से सीखता है। सामाजिक स्थिति और आसपास के माहौल से ऊर्जा पाता है और अपनी अनुभूतियों से प्रेरणा लेकर कविता गढ़ता है। असली कविता वही है जिसमें लोकतत्व हो और जीवन की धड़कन रची-बसी हो।” दरअसल वे जीवन, कविता और भाषा को पर्याय मानने वाले मनीषी थे:

“सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ भाषा, 
भाषा की अंगुलि से मानव हृदय हो गया
कवि मानव का, जगा गया नूतन अभिलाषा, 
भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है, 
ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है।”

उनकी ये सूक्तियाँ आनेवाली पीढ़ियों के बड़े काम की हैं कि “भाषा का परित्याग आत्मविश्वास खोना है” तथा “भाषा केवल ऊपरी आवरण नहीं है, वह रग-रग में रहती है।” भाषा-मरण की संकल्पनाओं के वैश्विक प्रसार के बीच त्रिलोचन जी के ये सुझाव भी बड़े काम के बित हो सकते हैं कि “भाषा में डंडे का ज़ोर नहीं चलता” तथा “भारत के जीवन को समझने के लिए भाषाओं का ज्ञान बहुत ज़रूरी है।” त्रिलोचन जी ने यह भी समझा और समझाया था कि भाषा बाज़ार पर नहीं अपने ठेठ प्रयोगकर्ता समाज के जीवन पर निर्भर है। वे मानते थे कि “भाषा का सम्बन्ध आंतरिक विकास से भी होता है। किसी भाषा की गहराई में उतरना हो तो अपने क्षेत्र के ग्रामीण लोगों से मिलिए। उनका सुख-दुख बाँटें। उनसे बातचीत कीजिए। अशिक्षित, अनपढ़ लोगों के बीच में रहिए। भाषा का मूल और सही रूप वहाँ मिलता है। इससे भाषा को नया तेवर मिलता है। यह सहजता कविता को मूल्यवान और अधिक सार्थक बनाती है।” तुलसी को वे लोकतत्व की महत्ता के कारण ही अपना काव्य गुरु मानते हैं:

“तुलसी बाबा, भाषा मैंने तुमसे सीखी, 
मेरी सजग चेतना में तुम रथे हुए हो।”

इसलिए भी त्रिलोचन जी का हमारे बीच से जाना शोक का विषय है कि वे गए तो हमारे बीच से शब्दों का एक मर्मी प्रयोक्ता चला गया-ऐसा प्रयोक्ता जिसे मौन को भी सुनना आता था:

“और थोड़ा, और आओ पास
मत कहो अपना कठिन इतिहास
मत सुनो अनुरोध, बस चुप रहो
कहेंगे सब कुछ तुम्हारे श्वास!”

यह “चुप” रहकर कहना और सुनना जिसे आ जाता है, वह जड़-चेतन, समस्त जगत, लोक और प्रकृति के साथ एकाकार हो जाता है, विश्वात्मा हो जाता है। त्रिलोचन जी इस उदात्त संवेदनशीलता के प्रतीक थे। उन्होंने कुरूप और सुंदर दोनों को एक साथ साधा-लोक के हित। सहज प्रकृति और सहज प्रेम उनके जीवन यथार्थ और काव्य यथार्थ दोनों में एक जैसे प्रवाहित हैं। प्रेम हो या काव्य, त्रिलोचन जी के लिए दोनों की सहजता अभीष्ट थी क्योंकि:

“बिना बुलाए जो आता है, प्यार वही है, 
प्राणों की धारा उसमें चुपचाप बही है!”

आज त्रिलोचन जी हमारे बीच नहीं हैं। पर हमें उनकी ज़रूरत है। और हमें उनकी ज़रूरत बार-बार होगी। ज़रूरत के वक़्त जो काम आए, वही तो अपना है। त्रिलोचन जी हमारे अपने हैं, उनकी बड़ी ज़रूरत है। आनेवाले समय में भी वे बड़े काम के साबित होंगे . . .  और तब के लिए वे “ताप के ताए हुए दिन” में अपना पता देकर गए हैं:

“कभी पूछ कर देखो मुझसे
मैं कहाँ हूँ
मैं तुम्हारे खेत में तुम्हारे साथ रहता हूँ
मैं तुमसे, तुम्हीं से बात किया करता हूँ
और यह बात मेरी कविता है।”

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