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ऐसी बानी बोलिये . . .! 

 

हिंदी दिवस विशेष

 

14 सितंबर। हिंदी दिवस। आज ही के दिन 75 वर्ष पूर्व भारतीय संविधान में हिंदी को (सशर्त) ‘भारत संघ की राजभाषा’ स्वीकार किया गया था। इसी दिन राज्यों को भी अपनी-अपनी राजभाषाएँ चुनने का अधिकार मिला था। यही वह दिन है जब यह तय किया गया था कि भारत संघ का यह कर्त्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके। यह दिन इसलिए भी अविस्मरणीय है कि इसी दिन भारतीय संविधान की अष्टम अनुसूची को स्वीकृति प्राप्त हुई थी जिसमें “राष्ट्र की भाषाओं” को सूचीबद्ध किया गया है और जिसमें आज 22 भाषाएँ सम्मिलित हैं। इस तरह हिंदी के साथ-साथ विभिन्न प्रांतीय भाषाओं को सम्मानित करने वाला यह दिन ‘हिंदी दिवस’ मात्र नहीं है, सही अर्थों में ‘भारतीय भाषा दिवस’ है। प्रकारांतर से यह दिन संप्रभु भारत की भाषायी आज़ादी के शंखनाद का दिन है। 

भारतीय संविधान के निर्माता चाहते थे कि भारत किसी विदेशी सभ्यता का भाषिक उपनिवेश न बने, क्योंकि वे जानते थे कि भाषा केवल वैचारिक आदान-प्रदान या राजकाज तक सीमित नहीं होती, बल्कि राष्ट्रीय अस्मिता और संस्कृति का प्रतीक और वाहक होती है। भारत की सारी भाषाएँ इसकी संस्कृति का संरक्षण, पोषण और अंतरण करने में समर्थ भाषाएँ हैं, इसलिए उन सबके सम्मान की रक्षा करते हुए अखिल भारतीय संवाद के लिए हिंदी को संघ की राजभाषा बनाया गया। अपने इस सामर्थ्य को वह स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सार्वदेशिक संपर्क की भाषा अथवा राष्ट्रभाषा के रूप में पहले ही प्रमाणित कर चुकी थी। लेकिन कार्यालयों में उपनिवेशकालीन राजभाषा अर्थात्‌ अंग्रेज़ी के स्थान पर हिंदी और भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठित करने के लिए आरंभ में 15 वर्ष की छूट दी गई। विडंबना यह कि 15 वर्ष बाद देश की राजनैतिक परिस्थितियाँ इतनी बदल गईं कि यह छूट रबर के शामियाने की तरह आज तक क़ायम ही नहीं, बल्कि लगातार बढ़ती जा रही है! 

प्रायः सयाने गुणीजन यह सुझाव देते देखे जाते हैं कि एक बुलडोज़री आदेश से पलक झपकते हिंदी को सहराजभाषा अंग्रेज़ी की बैसाखी से मुक्त किया जा सकता है। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि संस्कृति और अस्मिता का प्रतीक होने के कारण भाषा के साथ अनेक भावनात्मक मुद्दे जुड़े हुए हैं। संविधान निर्माताओं ने इसीलिए इस बात पर सर्वाधिक ज़ोर दिया कि भाषा के मुद्दे को विग्रह और विघटन का बहाना न बनाया जा सके। महात्मा गाँधी चाहते थे कि राष्ट्रभाषा (राजभाषा) का निर्धारण करते समय क्षुद्र स्वार्थों से मुक्त रहा जाए। 

भारतीय लोकतंत्र का यह दुर्भाग्य है कि वोट बैंक की चुनावी राजनीति के क्षुद्र स्वार्थों ने हमारे उस उदात्त भाषाबोध को बुरी तरह दूषित कर दिया है। फिर भी यह सोचकर ख़ुश हुआ जा सकता है कि इस प्रदूषण के बावजूद 75 वर्षों में हिंदी का रथ मंद-मंथर ही सही, लेकिन निरंतर गतिमान तो है! आज हिंदी बाज़ार से लेकर प्रौद्योगिकी तक, चुनाव से लेकर कूटनीति तक और साहित्य से लेकर सोशल मीडिया तक जिस तरह फल-फूल और फैल रही है, उससे यह आस बँधी है कि वह जल्दी ही शिक्षा, न्याय और रोज़गार की वास्तविक भाषा बन सकेगी। यदि ऐसा हो सके, तो शायद हम 2047 तक देश का सारा कामकाज भारतीय भाषाओं में होते देख पाएँ! 

भाषा के नाम पर भारतजननी के हृदय को टुकड़े-टुकड़े करने पर आमादा इस क्षुद्र राजनीति को विफल करने का एक ही रास्ता है। और वह है मन-वचन-कर्म से सब भारतीय भाषाओं के सखा भाव की रक्षा। देशवासियों को समझना चाहिए कि हिंदी का किसी भी प्रांतीय भाषा से कोई संघर्ष नहीं है। हिंदी भाषियों को चाहिए कि वे दूर-पास की अन्य भारतीय भाषाओं को उसी खुले मन से अपनाएँ, जिस खुले मन से कभी दयानंद सरस्वती, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, महात्मा गाँधी, लाला लाजपत राय, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, कन्हैयालाल मणिकराय मुंशी और सरदार वल्लभभाई पटेल जैसी अनेक मूलतः हिंदीतरभाषी विभूतियों ने हिंदी को अपनाया था। 

और अंततः एक बात और। चुनावी राजनीति ने सार्वजनिक जीवन की भाषा को जिस रसातल में धकेल दिया है, उसे वहाँ से निकालने के लिए सियासतदानों को भी संत कबीर का यह मंत्र अपनाना चाहिए:

“ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय। 
औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय।”

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