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कंचन थार आरती नाना

रम्य रचना: ॥कंचन थार आरती नाना॥

प्रकाश सृष्टि का प्रतीक है; और दीपक उसका हमारे सबसे निकट स्थित वाहक। चेतना और प्राणशक्ति का ही एक नाम है दीप। उसने उस एक नूर की किरण को, चिंगारी को, स्फुलिंग को, अपने में समेट कर रखा है, जिससे यह सारा जग उपजा है। दीपक बीजमंत्र है—ऊर्जा के सारे स्फोट को अपनी बाती में सँभाले हुए। दीप जलता है तो चाहे जितना ही मद्धिम जले, पर जहाँ तक उसकी किरण जाती है, अँधेरा कट जाता है। दीप जलता है, जलता ही है, अँधेरे को काटकर लोक का कल्याण करने के निमित्त। अँधेरे में पनपता है अज्ञान; अँधेरे में पनपते हैं रोग; अँधेरे में पनपता है शोक; अँधेरे में पनपती है दरिद्रता; अँधेरे में पनपते हैं अपराध। दीपक एक-एक कर काटता है अज्ञान को; रोग को; शोक को; दरिद्रता को; अपराध को। इसीलिए तो दीपक को, दीपक की ज्योति को, प्रणाम किया जाता है। 

दीपक के अभाव में ज़िन्दगी अँधेरी सुरंग थी। मैं तो बस चला जा रहा था। एक हाथ में लोक की लाठी थी, दूसरे में शास्त्र की बेंत। पर दीखता कुछ न था! तभी, तुम आए, और आगे-आगे दीपस्तंभ बने चलने लगे! धीरे धीरे तुम्हारी ज्योति मेरे भीतर समाती रही, और मेरे अंतस्तल का जाने कब से अँधियारा पड़ा लोक आलोक से भर उठा। भीतर का दीया जल गया था! कैसा अंधा था मैं, आज से पहले ध्यान ही नहीं दिया था। जिस प्रकाश को, जन्म-जन्म जाने कहाँ-कहाँ खोजता फिरा, वह तो मेरे भीतर था। बड़ी कृपा की तुमने। भरपूर तेल से भरा दीया दिया। कभी न ख़त्म होने वाली बाती दी। अखंड ज्योति जल उठी। यह अखंड ज्योति अब दिन रात तेरी आरती बन गई है। आकाश के थाल में, सूर्य, चंद्र और अग्नि ही नहीं, असंख्य तारे भी तेरी आरती उतार रहे हैं। यह महोत्सव है तेरे प्रकाश के मुझ पर उतरने का। चौदह-चौदह चंदा खिल उठे हैं, चौंसठ-चौंसठ दीवों की मालाएँ झिलमिला उठी हैं। स्वयं-प्रकाशमय तुम जबसे मेरे घर आए हो, सब ओर अखंड प्रकाश है। अब चाहे जितनी अमावस घिरे, चाहे जितना तमस बरसे, चाहे जितनी कालिख उड़े, मेरे अस्थिचूड़ का दीपक लगातार जलता रहेगा—मेरी पुकार सुनकर कोई न भी आए, तो भी। 

जब-जब तुम आए हो, तब-तब मेरे रोम रोम ने मंगलगीत गाए हैं, दीपमालिका सजाई है। सभी ने महसूस किया होगा कभी न कभी, चाहे जितनी दूर रहो, एक कोई छोटी सी ज्योति, हमें निरंतर अपनी ओर खींचती रहती है। ज्योति—जो सरयू के जल में सिराये दोने में, जाने कबसे जल रही है। हर साँझ माँ कौसल्या आती है आँचल में दीपक छिपाए हुए, और जाने कितनी शुभकामनाएँ मन ही मन उच्चारती हुई, उस दिए को सरयू में प्रवाहित कर देती है। उधर राजभवन के शिखर पर, नंगे पैरों सात-सात मंज़िलों की सीढ़ियाँ चढ़कर, उर्मिला आकाशदीप जला आती है। जहाँ भी हों, हमारे प्रिय, उनका मार्ग प्रकाशमय रहे! यह सरयू का दीया, यह राजभवन के शिखर का आकाशदीप, उनके लौटने के मार्ग में प्रकाश के पाँवड़े बन जाएँ। लंका की चकाचौंध एक तरफ़ और साकेत की दीपशिखाओं की रुपहली सी झलमल एक तरफ़। दीपशिखा के इस मधुर प्रकाश में ममत्व है, वात्सल्य है, स्नेह है, और है प्रतीक्षा। इसलिए, स्वर्णमयी लंका भी राम को लुभा नहीं पाती। और वे पुष्पक विमान से सीधे साकेत आ पहुँचते हैं। 

राम के लिए विलंब करना सम्भव नहीं है। आज अगर देर कर दी, तो वह पगला भरत, चिता में जल मरेगा। वैसे भी, भरत चौदह साल से एक सुलगती हुई चिता ही तो है। प्रतिक्षण जलती इस चिता से जाने कितना धुँआँ उठ-उठ कर ब्रह्मांड में व्याप गया है। राम की आँखें अकेले में जाने कितनी बार, इस धुँएँ से कड़ुआ कर, झर-झर बरसती आई हैं। इसलिए अब राम के लिए, और विलंब करना सम्भव नहीं। 

राम अयोध्या पहुँच रहे हैं। आज दीवाली है। दीवाली—ज्ञान और समृद्धि का त्योहार। दीवाली—साधना की सिद्धि का पर्व। मिलन को उपलब्ध होने का महोत्सव है दीवाली। यही तो प्रिय की अगवानी का शुभ मुहूर्त है। भरत माताओं को राम के आगमन की सूचना देते हैं, तो वे विह्वल हो उठती हैं। पगला कर दौड़ पड़ती हैं—जैसे बछड़े की आहट पाकर गाय दौड़ पड़ी हो। नगर भर में समाचार फैल जाता है, और शोक की चौदह वर्ष की अमावस्या एक पल में अतीत हो जाती है। दीप जलाकर, लोकाभिराम राम की अगवानी की जाती है, और नगर जगर-मगर हो उठता है। राम आ पहुँचे हैं अयोध्या में। भरत-मिलाप जैसा मार्मिक अवसर कहीं दूसरा नहीं मिलता। पर राम तो सबके हैं। वे भरत से मिलते हैं, और एक-एक पुरवासी से भी मिलते हैं। राम ने जैसे उतने ही रूप धर लिए, जितने नागरिक हैं। सबसे ‘यथायोग्य’ मिले वे, क्षण भर में। दीपक प्रज्वलित हो तो एक साथ सबको यथायोग्य उसका प्रकाश मिल जाता है। वह कोई भी तिथि हो, कोई भी वार हो, अगर प्रिय मिलन की तिथि हो, अगर यथायोग्य कृपा की वर्षा का वार हो, तो वह वेला अंधकार के समूल कटने की वेला बन जाती है। राम का पृथ्वी को निशिचरहीन करके लौटना, ज्योति-बीज बोने का काल है। जब-जब वह पल अनंत काल के प्रवाह में कहीं भी घटित होता है, तब-तब सजती है दीपावली और मनाया जाता है आलोक का पर्व:

“कंचन कलस विचित्र सँवारे। 
सबहि धरे सजि निज निज द्वारे॥
 
बंदनिवार पताका केतू। 
सबन्हि बनाए मंगल हेतू॥
 
बीथीं सकल सुगंध सिंचाईं। 
गजमनि रचि बहू चौक पुराईं॥
 
नाना भाँति सुमंगल साजे। 
हर्षि नगर निसान बहू बाजे॥
 
जहं तहं नारि निछावरि करहीं। 
देहिं असीस हर्ष उर भरहीं॥
 
कंचन थार आरती नाना। 
जुवती सजें करहिं सुभ गाना॥
 
करहिं आरती आरतिहर कें। 
रघुकुल कमल विपिन दिनकर कें॥
 
नारि कुमुदिनी अवध सर, 
रघुपति बिरह दिनेस। 
 
अस्त भए बिगसत भईं, 
निरखि राम राकेस॥” 
 
कहाँ है अँधेरा? कहाँ है अमावस?? जिस रात के चंद्रमा राम हैं, उसमें कैसा अँधेरा??? जब तक राम नहीं थे—तभी तक अँधेरा था—तभी तक अमावस थी। राम आ गए। उजियारा छा गया। उजियारा—भीतर और बाहर सर्वत्र उजियारा!!! 

मेरे दीपक, तू निष्कंप जलता चल। इस तरह जल कि कोई कहीं अँधेरे रास्ते पर न भटके। किसी चिड़िया-चुरंग का भी घर न खोये। किसी को भी भयभीति न हो, और किसी का भी सपना न टूटे। ओ मेरे दीपक जल। इस तरह जल कि तुझसे अनेक दीप जल उठें। अँधेरा सब ओर से घिर रहा है, निशाचरों ने पृथ्वी पर तांडव मचा रखा है। मुझे दीपक राग गाने दो। हर मनुष्य के हृदय का दीपक जल उठे। आख़िर इसी दीपक के सहारे तो प्रलय निशा के पार जाना है हमें। जलो, मेरे दीपक, जलो, अनथक जलो। अकेले जलो, और फिर पंक्ति में जलो। जलो क्योंकि तुम्हारे भीतर वही हठीली आग सुलगती है, जो सृष्टि के आरंभ से हर अँधेरे को चुनौती देती चली आई है। जलो मेरे दीपक जलो। हर ओर से अँधेरे की सेनाएँ टूट पड़ रही हैं। इसीलिए जलो, दीपमाला बनकर जलो!!!

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