सूर्य: दस तेवरियाँ
काव्य साहित्य | कविता प्रो. ऋषभदेव शर्मा16 Aug 2008
(स्रोत-तेवरी-1982, तरकश-1996)
1.
जब नसों में पीढ़ियों की, हिम समाता है
शब्द ऐसे ही समय तो काम आता है
बर्फ़ पिघलाना ज़रूरी हो गया, चूँकि
चेतना की हर नदी पर्वत दबाता है
बालियों पर अब उगेंगे धूप के अक्षर
सूर्य का अंकुर धरा में कुलबुलाता है
2.
बौनी जनता, ऊँची कुर्सी, प्रतिनिधियों का कहना है
न्यायों को कठमुल्लाओं का बंधक बन कर रहना है
वोटों की दूकान न उजड़े, चाहे देश भले उजड़े
अंधी आँधी में चुनाव की, हर संसद को बहना है
टोपी वाले बाँट रहे हैं, मन्दिर मस्जिद गुरूद्वारे
इस बँटवारे को चुप रहकर, कितने दिन तक सहना है
देव तक्षकों के रक्षक हैं, दूध और विष की यारी
असम, आंध्र, कश्मीर सब कहीं, यही रोज़ का दहना है
हम प्रकाश के प्रहरी निकले, कलमें तेज़ दुधारी ले
सूरज इतने साल गह चुका, राहु केतु को गहना है
3.
घर के कोने में बैठे हो लगा पालथी, भैया जी
खुले चौक पर आज आपका एक बयान ज़रूरी है
झंडों-मीनारों-घंटों ने बस्ती पर हल्ला बोला
चिड़ियाँ चीखें, कलियाँ चटखें शर संधान ज़रूरी है
मैं सूरज को खोज रहा था संविधान की पुस्तक में
मेरा बेटा बोला – पापा। रोशनदान ज़रूरी है
जिनके भीतर तंग सुरंगें, अंधकूप तक जाती हैं
उन दरवाज़ों पर ख़तरे का, बड़ा निशान ज़रूरी हैं।
4.
यह नए दिन का उजाला देख लो
सूर्य के हाथों में भाला देख लो
धूप बरछी ले उतरती भूमि पर
छँट रहा तम अंध पाला देख लो
भूख ने इतना तपाया भीड़ को
हो गया पत्थर निवाला देख लो
फूटने के पल सिपाही जन रहा
किस तरह हर एक छाला देख लो
शांत था कितने दिनों से सिंधु यह
आज लेता है उछाला देख लो
5.
पसीना हलाल करो
काल महाकाल करो
तेल बना रक्त जले
हड्डियाँ मशाल करो
संगीन के सामने
खुरपी व कुदाल करो
महलों के बुर्जों पर
तांडव बेताल करो
कालिमा को चीर दो
दिशा-दिशा लाल करो
सबसे पहले अब हल
भूख का सवाल करो
6.
लोकशाही के सभी सामान लाएँगे
पाँच वर्षों पूर्व के महमान आएँगे
बर्फ़ के गोले बनाकर खेलते बच्चे
धूप चोरों को अभी पहचान जाएँगे
भीड़ भेड़ों की सजग है, कुछ नया होगा
खाल ओढ़े भेड़िए नुक़्सान पाएँगे
रोष की आँधी चली तो हिल उठी दिल्ली
होशियारी के शिखर नादान ढाएँगे
उग रहा सूरज अँधेरा चीरकर फिर से
रोशनी का अब सभी जयगान गाएँगे
7.
घुला लहू में ज़हर देहली
हत्याओं का शहर देहली
नशे-नहाई हुई जवानी
एक शराबी नहर देहली
दिल की कश्ती को ले डूबी
आवारा सी लहर देहली
ख़ंजर से तन-मन घायल है
ठहर कसाई ठहर देहली
रोज़ पटाती है सूरज को
नंगी हर दोपहर देहली
रोज़-रोज़ हर गली क़यामत
सड़क-सड़क पर क़हर देहली
8.
लोगों ने आग सही कितनी
लोगों ने आग कही कितनी
सेंकी तो बहुत बुखारी, पर
बच्चों ने आग गही कितनी
संसद में चिनगी भर पहुँची
सड़कों पर आग बही कितनी
आँखों में कड़ुआ धुआँ-धुआँ
प्राणों में आग रही कितनी
हिम नदी गलानी है, नापें
कविता ने आग दही निकली
9.
हर रात घिरे जलना, हर एक दिवस तपना
अँधियारे युद्धों में किरणों का मर खपना
शब्दों पर हथकड़ियाँ, होंठों तालाबंदी
त्रासद अख़बारों में सुर्ख़ी बनकर छपना
आँखों में आँज दिया कुर्सी ने धुआँ धुआँ
जनने से पहले ही हर हुआ ज़िबह सपना
अब यहाँ क्रांति-फेरी लगने दो नगर-नगर
यह शांति-शांति माला बस और कहीं जपना
अब उठों जुनूनों से, ज़ुल्मों से जूझ पड़ो
ज्वाला में निखरेगा नचिकेता-मन अपना
10.
गीत हैं मेरे सभी उनकों सुनाने के लिए
तेवरी मेरी सभी तुमको जगाने के लिए
रक्त मेरा चाहिए तो शौक़ से ले जाइए
सिर्फ़ स्याही चाहिए अक्षर उगाने के लिए
रात सबकी चाँदनी में स्नान कर फूले-फले
यह पसीना ही मुझे काफ़ी नहाने के लिए
धर लिया ज्वालामुखी अब लेखनी की नोक पर
सूर्य की किरणें चलीं लावा बहाने के लिए
शीत लहरों के शहर में सनसनी सी फैलती
धूप ने कविता लिखी है गुनगुनाने के लिए।
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