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क्या मैंने इस सफ़ेदी की कामना की थी? : द्रौपदी का आत्म साक्षात्कार 

पुस्तक  : द्रौपदी [तेलुगु उपन्यास]
मूल लेखक : आचार्य यार्ल गड्डा लक्ष्मी प्रसाद
प्रकाशक : लोकनायक फाउंडेशन, विशाखपट्टनम-530003
संस्करण  : 2006
मूल्य : 125 रुपये [पेपरबैक]
पृष्ठ संख्या : 278 पृष्ठ 

क्षुब्ध अश्वत्थामा के हाथों अपने पाँच पुत्रों की हत्या का समाचार द्रौपदी को तोड़ देता है और वह स्वयं से प्रश्न करती है, "क्या मैंने इस सफेदी की कामना की थी।" महाभारत के बाद सब ओर सफ़ेदी ही बची न! पुरुष मर गए और सफ़ेद कफ़न में लपेटे गए। स्त्रियाँ बच गईं और वैधव्य की सफ़ेद साड़ियों में लिपट गईं!

इतनी ही फलश्रुति है महाभारत युद्ध की! विश्व इतिहास के इस अभूतपूर्व मारणहोम का मूल कारण बनी द्रौपदी का यह प्रश्न और अनुताप आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद के तेलुगु उपन्यास "द्रौपदी" का केन्द्रीय प्रश्न है तथा लेखक ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक इतिहास और मिथक के पुनर्पाठ के लिए इसे ही अपनी कृति के सृजन के  बीज के रूप  में  रचनाधर्मिता की उर्वर ज़मीन में बोया है। 'द्रौपदी' [२००६] डॉ. लक्ष्मी प्रसाद जी की इसी नाम की बहुचर्चित औपन्यासिक तेलुगु कृति का हिन्दी अनुवाद है।

इसमें संदेह नहीं कि इस प्रतिष्ठित कृति से तेलुगु और हिन्दी ही नहीं, भारतीय साहित्य की समृद्धि हुई है । इससे एक बार फिर इस मान्यता की पुष्टि हुई है कि रामायण, महाभारत और बृहत्कथा में आज भी भारतीय साहित्य को नई उड़ान देने वाली ऊर्जा विद्यमान है। लेखक ने इतिहास और कल्पना के सुंदर सामंजस्य द्वारा अपनी इस कृति  में आधुनिक [या उत्तर आधुनिक] युग के पाठक की दृष्टि से कथा रस की सृष्टि में सफलता प्राप्त की है और महाभारत का इस प्रकार पुनर्पाठ  प्रस्तुत किया है कि इसे आचार्य यार्ल गड्डा लक्ष्मी प्रसाद का महाभारत कहा जा सकता है क्योंकि इसकी मूलकथा तो पारंपरिक ही है परन्तु उसकी व्याख्या करने तथा छूटी कड़ियों को जोड़ने के लिए उन्होंने जो मौलिक उद्भावनाएँ की हैं, वे पुरानी गाथा को नया रूप देने में सक्षम हैं। द्रौपदी के पुराख्यान को आधुनिक स्त्रीवाद के अभिनव सन्दर्भों में व्याख्यायित करने वाली यह कृति पर्याप्त शोधपूर्ण है। यहाँ द्रौपदी को मात्र शोषित और क्रोधित स्त्री के रूप में ही नहीं बल्कि चारित्रिक दृढ़ता, संकल्प और लक्ष्योंमुखता से परिपूर्ण अत्यन्त संवेदन शील स्त्री के रूप में उभारा गया है। वह एक ऐसी स्त्री है जो, या तो  भाग्यवश या कुंती की नीतिवश या युधिष्ठिर  के षड्यंत्रवश या अर्जुन की दायित्व-विमुखतावश, पाँच पुरुषों में बँटी हुई है और उसकी त्रासदी यह है कि इनमें से किसी एक से भी उसे सही अर्थों में प्रेम नहीं मिल पाता। लेखक ने द्रौपदी के इस पंचधा विखंडित व्यक्तित्व को उभारने के लिए उसके पाँचों पतियों के काम-व्यवहार का सटीक अंकन किया है और दर्शाया है कि क्यों द्रौपदी की वासना शाश्वत अतृप्ति के लिए अभिशप्त प्रतीत होती है। मनोविज्ञान का सहारा लेकर पूर्वजन्मों से जुड़ी वरदान आदि की घटनाओं की यह स्त्री विमर्शीय व्याख्या इस उपन्यास को  भारतीय मिथकाधारित उपन्यासों में सम्मानपूर्ण स्थान का धिकारी बनाने के लिए पर्याप्त है। इसमें संदेह नहीं कि लेखक को नए सन्दर्भों में द्रौपदी के व्यक्तित्व की गरिमा को स्पष्ट करने के अपने उद्देश्य में सफलता मिली है। कृष्ण के प्रति कृष्णा के भक्ति भाव की व्याख्या से इस पुनर्पाठ को परिपूर्णता प्राप्त हुई है। तेलुगु से हिन्दी में अनूदित कृति के रूप में देखें तो यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि एक ही संस्कृति - भारतीय संस्कृति  -  के भीतर विद्यमान भिन्न भाषा समाजों के बीच यह कृति सेतु की भूमिका निभा सकती है। ध्यान रहे, कि हिन्दी माध्यमिक या फ़िल्टर भाषा के रूप में तेलुगु की किसी कृति को अन्य भाषाओं तक ले जाने में भी सहयोग करती है। अतः अनुवादक से बहुत सावधानी की अपेक्षा की जाती है। इस बात के लिए 'द्रौपदी' के अनुवाद की  प्रशंसा की जायेगी कि इसके माध्यम से तेलुगु भाषा समाज की अनेक लौकिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक भाषिक-अभिव्यक्तियाँ हिन्दी भाषा समाज को उपलब्ध हुई हैं। हिन्दी प्रयोक्ता यदि इनका अपने वाक्-व्यवहार और लेखन में उपयोग करे तो इससे हिन्दी सही अर्थों में भारत की सामासिक संस्कृति की भाषा के रूप में समृद्धतर होगी।

यहाँ अति संकोच परन्तु पूरी ज़िम्मेदारी के साथ मैं यह कहने की अनुमति चाहता हूँ कि अनुवादक को ऐसे महत्त्वपूर्ण साहित्यिक सांस्कृतिक पाठ का अनुवाद करते समय जिस जागरूकता से काम लेना चाहिए, उसका आरम्भ से अंत तक अनेकानेक स्थलों पर अभाव इस अनूदित पाठ को विषय की गरिमा के निर्वाह में अक्षम बनाता प्रतीत होता है। समस्रोतीय - भिन्नार्थक शब्दों के प्रयोग में वांछित सावधानी तथा आवश्यकतानुसार पाद-टिप्पणी या  स्पष्टीकरण के अभाव के कारण संप्रेषण बाधित होता है। आरम्भ से अंत तक पृष्ठ - पृष्ठ पर वर्तनी और व्याकरण के दोषों पर पाठक सिर पीटने के अलावा कुछ नहीं कर सकता! कहना ही होगा कि  अनुवादक की लापरवाही ने तेलुगु की एक उत्कृष्ट कृति की हत्या करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। सम्यक शब्द चयन के प्रति अनुवादक की अगम्भीरता के कारण कई स्थलों पर अभद्र और अशोभन शब्दावली के प्रयोग से इस सांस्कृतिक -मिथकीय कृति का लक्ष्यभाषा पाठ विकृत हो  गया है। वस्तुतः प्रकाशन से पूर्व अनूदित पाठ का गहराई से पुनरीक्षण, सम्पादन तथा यथावश्यक पुनर्लेखन होना चाहिए था ताकि मूल रचना के साथ न्याय हो सकता! 

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