अभी न होगा मेरा अंत : निराला का पुनर्पाठ
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा प्रो. ऋषभदेव शर्मा15 May 2020 (अंक: 156, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
समीक्ष्य पुस्तक : अभी न होगा मेरा अंत निराला
लेखिका : उषारानी राव
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर
प्रथम संस्करण : जनवरी, 2020 पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 120
छायावादी कविता के प्रमुख उन्नायकों में एक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला अपने काव्य की जटिलता और सरलता दोनों ही के कारण आलोचकों के लिए चुनौती रहे हैं – अपने समय में भी और आज भी। अगर यों कहा जाए कि निराला न तो छायावाद में पूरी तरह से अँटते हैं और न प्रगतिवाद में, तो भी कुछ ग़लत न होगा। इसके बावाजूद वे छायावादी भी हैं और प्रगतिवादी भी। छायावाद के उदय के सौ साल बाद आज के रचनाकार के लिए भी अगर निराला प्रेरणा पुंज बने हुए हैं, तो यह उनकी महाप्राणता और कालजयी प्रासंगिकता का प्रमाण है। यही कारण है कि पाठक और आलोचक बार-बार निराला और उनकी कविता के पास जाते हैं तथा नई प्राण शक्ति ग्रहण करते हैं। ऐसी प्राण शक्ति जिसमें नित नूतन वसंत का यह विश्वास निहित है कि ‘अभी न होगा मेरा अंत’। इसी क्रम में डॉ. उषा रानी राव ने निराला के काव्य का पुनर्पाठ ‘अभी न होगा मेरा अंत : निराला’ (2020, जयपुर : बोधि प्रकाशन) प्रस्तुत किया है।
कन्नड मातृभाषी, डॉ. उषा रानी राव अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त हिंदी, संस्कृत और अँग्रेज़ी साहित्य की गहन अध्येता विदुषी हैं। संपादन, अनुवाद और स्तंभलेखन के साथ साथ उन्होंने काव्य सृजन और साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में विशेष पहचान अर्जित की है। उनकी यह कृति भी उनके गहन अध्ययन और चिंतन मनन का उत्कृष्ट परिणाम है। इस कृति में निराला के काव्य के पुनर्पाठ के मूल में लेखिका की समाजशास्त्रीय और मानववादी दृष्टि विशेष रूप से सक्रिय रही है। छायावाद को उन्होंने साहित्यिक के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में व्याख्यायित करने का सफल प्रयास किया है। उनकी धारणा है कि छायावादी साहित्य एक ऐसी नवीन मानवीय दृष्टि से अनुप्राणित है, जिसमें रूढ़ियों का खंडन, औदात्य, विश्वबंधुत्व और सांस्कृतिक एकता के भाव निहित हैं। छायावाद ने यह दृष्टि निजता के वैश्विक प्रसार द्वारा आयत्त की। विशेषकर निराला ने तो वैयक्तिक चेतना के इतने फैलाव को संभव करके दिखाया कि वे स्वयं समाज की गीतिका बन गए। कौन नहीं जानता कि छायावाद के साथ तत्कालीन आलोचना ने पक्षपात और भेदभाव बरता। अपने अक्खड़ और फक्कड़ स्वभाव के कारण निराला विशेष रूप से आलोचकों के निशाने पर रहे। डॉ. उषा ने उस सीमित दृष्टिकोण का त्याग करके यह व्यापक धारणा अपनाई है कि छायावादी आधुनिकता मानवीय मूल्यों को नवीनता के साथ उपस्थित करने के प्रयास का नाम है। उन्होंने इसकी स्वछंदता को खोए हुए व्यक्ति की खोज के रूप में रेखांकित किया है और यह दर्शाया है कि इस काव्य का मूल प्रयोजन प्रकृति, अध्यात्म और लोक कल्याण की तिहरी भित्ति पर आधारित है। इनमें से एक की भी उपेक्षा करके न तो छायावाद को, और न ही निराला को समग्रतः समझा जा सकता है। अगर इस प्रयोजन त्रयी को ध्यान में रखा जाए, तो सहज ही यह समझा जा सकता है कि क्यों निराला के काव्य में सौन्दर्य, उल्लास और संघर्ष के बीच विरोध न होकर समंजस्य है। इसे लेखिका ने रचनाकार के आंतरिक संघर्ष और वैचारिक उदारता का सौंदर्य बोध कहा है जो उसकी अमरता का आधार है।
निराला के काव्य की स्वछंदता की व्याख्या करते हुए लेखिका ने यह ध्यान दिलाया है कि समय-समय पर स्वछंदता नई सीमाओं और नई व्याख्याओं को लेकर प्रस्तुत होती है। वह रूढ़ि बन चुके विगत के विचारों से मुक्ति का प्रयत्न है। कहना न होगा कि निराला ने मुक्त छंद के रूप में अपने समय की काव्य रूढ़ियों के प्रति विद्रोह का शंखनाद किया, और काव्य वस्तु के स्तर पर रूढ़ जीवन मूल्यों के प्रति जागरूक बौद्धिक प्रतिक्रिया के रूप में एक क्रांति उपस्थित की। निराला जब मानवों की मुक्ति की भाँति, कविता की मुक्ति की बात करते हैं, तो वे सही अर्थों में समस्त जड़ रूढ़ियों को ध्वस्त करके स्वच्छंदता का मार्ग प्रशस्त करते हैं। यही कारण है कि वे बीसवीं शताब्दी में कबीर के वंशधर प्रतीत होते हैं, जो अपना नया मार्ग प्रवर्तित करने के बावजूद किसी मत-वाद में बँधे हुए नहीं हैं। कबीर और निराला दोनों ही जीवन के अनुभव के साथ निरंतर पल्लवित और भलीभूत दर्शन के उद्गाता हैं।
लेखिका ने अनेक अंतर्साक्ष्यों के आधार पर यह प्रतिपादित किया है कि निराला की काव्यदृष्टि किसी भी कोण से एकांगी नहीं है। वे सही अर्थों में विश्वदृष्टि संपन्न कालजयी साहित्यकार हैं। उनकी उत्तरजीविता का आधार जग को ज्योतिर्मय कर देने की उनकी मंगलकामना में निहित है। वे जिस नूतन जीवन के निर्माण का स्वप्न देखते हैं, वह व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामाजिक और सार्वजनीन है। यही कारण है कि लेखिका को निराला के जीवन का आदर्श स्वछंदता से प्रेरित होकर लोकमंगल की भावना में पर्यवसित होता प्रतीत होता है; जो सही भी है। इसी से तो मायामोह का परिष्कार होता है तथा आध्यात्मिक कोटि का उदात्त विश्वप्रेम संभव हो पाता है। यहाँ आकर निराला की ‘मैं’-शैली वैश्विक संवेदना का औदात्य प्राप्त करती दिखाई देती है। लेखिका की यह स्थापना पर्याप्त सुचिंतित प्रतीत होती है कि भारतीय परंपरा में जीवन, अध्यात्म से अलग नहीं है, और इस परंपरा में मानवतावाद तथा विश्व कल्याण की भावना गहराई से गुँथी हुई है। नि:संदेह निराला अपने समय में इसी अध्यात्म की पुनर्रचना कर रहे थे; और इसी कारण उनकी रचनाएँ भारतीय जीवन दर्शन की व्याख्या करती सी प्रतीत होती हैं।
छायावाद को अतीतजीवी और पलायनवादी कहने वाले प्रायः उसके युग बोध और राष्ट्रीय चेतना की जानबूझ कर उपेक्षा करते हैं। इसके विपरीत डॉ. उषा रानी राव ने निराला के छायावादी काव्य को राष्ट्रीय जागरण के साथ जोड़ कर देखने की वकालत की है। वे मानती हैं कि राष्ट्रीय जागरण के उन दिनों में यह विचार प्रबल रूप से समाज में स्वीकृत था कि वर्ण व्यवस्था मिट गई तो समाज मर्यादाविहीन हो जाएगा, किंतु निराला ने इस जीर्ण-शीर्ण व्यवस्था के निर्मूलन के लिए अपने व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों के माध्यम से प्रेरक भूमिका निभाई और इस तरह उनका अपना काव्य सत्य तत्कालीन समाज के समूहिक सत्य के साथ एकाकार हो गया। निराला प्राचीन रूढ़ियों और सामाजिक परंपराओं के विरोध के प्रतीक बन गए। वे समाज के आमूल परिवर्तन की पुकार ही नहीं लगाते, अपने जीवन में उसे साकार भी करते हैं। लेखिका ने निराला के इस आग्रह को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के 1924 के इस कथन से प्रेरित माना है कि “इस दुनिया की सृष्टि एक ऐसे ईश्वर ने की है, जिसकी कोई जाति नहीं है, जो नीच-ऊँच का कायल नहीं, जो ब्राह्मण तथा कीड़े-मकोड़े तक में अपनी सत्ता प्रकट करता है।” कहना न होगा कि हर प्रकार के जातिभेद और वर्णवाद का विरोध करने वाले निराला इसी विचार को आगे बढ़ाते दिखाई देते हैं। यही तो स्वच्छंदता का सही पाठ है। वैसे निराला में कभी-कभी एक उच्छृंखलता का पुट भी दिखाई देता है, लेकिन जैसा कि लेखिका ने लक्षित किया है, यह उनके चरित्र का मूल भाव नहीं है।
निराला के सामाजिक सरोकार को रेखांकित करते हुए लेखिका ने विशेष रूप से यह ध्यान दिलाया है कि ग़रीबों की पुकार पर ठिठक कर रुकने वाले सहृदय कवि को शेर का जीवन काम्य है। वे शेर की माँद में पनपते सियारों को देख कर क्षुब्ध हो उठते हैं। शेर की तरह दहाड़ भी उठते हैं। क्योंकि उनकी वाणी ग़रीबों की पुकार से प्रेरित है। कवि को उस शेरनी की आवाज़ स्पष्ट सुनाई देती है, जिसके बच्चों को किसी ने छीन लिया है। उस दहाड़ से प्रेरित कवि उस बच्चे को बचाने के लिए काल के घर जाने को भी तैयार है। वंचित, पददलित और शोषित जन की आवाज़ लेकर कवि सब झेलने के लिए तैयार है। लेखिका का मानना है कि यह समदर्शी जीवन व्यवहार निराला के व्यक्तित्व की छाप है।
निराला इस अर्थ में भी आगे के कवियों के लिए मार्गदर्शक रहे हैं कि उन्होंने आधुनिक हिंदी कविता को व्यंग्य की धार दी। उन्होंने समाज में सदियों से होने वाले अत्याचार पर व्यंग्य किया, ऐसे स्थलों पर जन समाज के साथ उनकी हमदर्दी के अलावा लोकमंगल का भाव ख़ासतौर पर अग्रप्रस्तुत हो उठता है। यहाँ वे फिर भारतीय विश्वदृष्टि के प्रस्तोता प्रतीत होते हैं, क्योंकि मानवता के नाम से जिस आदर्श को सदियों से सम्मान मिलता रहा है, निराला ने उसी मानवता की दुहाई देकर पीड़ित और दुखी जनता का चित्र खींचा है। यही नहीं, वे सामाजिक यथार्थ के साथ साथ संहार में छिपी सृजन की संभावनाओं को भी भली प्रकार देख और दिखा पाते हैं, तो वह भी अंधकार पर प्रकाश की सदा विजय के भारतीय विश्वास की ही देन है। यही कारण है कि उनके यहाँ बादल किसानों में जीवन की आशा और आकांक्षा का संचार करने के साथ साथ क्रांति के भी दूत बन कर आते हैं। साथ ही लेखिका ने यह लक्षित किया है कि बिल्लेसुर बकरिहा तथा कुल्ली भाट जैसी गद्य रचनाओं और बेला, नए पत्ते, कुकुरमुत्ता, दान तथा अपरा में निराला ने समाज के प्रति अपने आक्रोश को पैने व्यंग्य के रूप में ढालने में सफलता पाई है। ऐसी रचनाओं में तत्कालीन समाज के बौद्धिक विघटन पर गहन चिंता दिखाई देती है।
कुल मिलाकर, लेखिका डॉ. उषा रानी राव ने निराला की उत्तरजीविता का स्रोत उनकी उस मुखर सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना और प्रशस्त मानववादी विश्वदृष्टि में निहित माना है, जो उन्हें नवजागरणकालीन और स्वाधीनता आंदोलन से अनुप्राणित बीसवीं शती के हिंदी साहित्य में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का उत्तराधिकारी सिद्ध करती है।
अंततः यह कहना ज़रूरी है कि ‘अभी न होगा मेरा अंत : निराला’ अत्यंत तर्कपूर्ण और तत्वान्वेषी अध्ययन है, जिसे निराला और उनके युग को समझने के लिए ध्यानपूर्वक पढ़ा जाना चाहिए। यदि उद्धरणों के साथ पाद टिप्पणी में स्रोतों का भी उल्लेख कर दिया गया होता, तो सोने में सुहागा हो जाता।
लेखिका और प्रकाशक को बधाइयाँ और साधुवाद।
• ऋषभदेव शर्मा, पूर्व आचार्य और अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा। आवास: 208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद-500013. मो.8074742572. rishabhadeosharma@yahoo,com
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