यह डगर कठिन है, तलवार दुधारी है
काव्य साहित्य | कविता प्रो. ऋषभदेव शर्मा1 Jul 2023 (अंक: 232, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
(तेवरी)
यह डगर कठिन है, तलवार दुधारी है
घात लगा कर बैठा क्रूर शिकारी है
वे भला समर्पण-श्रद्धा क्या पहचानें
उनके हाथों में नफ़रत की आरी है
ईरान कहें या अफ़ग़ानिस्तान कहें
घर-बाहर कोड़ों की ज़द में नारी है
मुट्ठी में ले जिसने आकाश निचोड़ा
कोमल मन लेकर वह सबसे हारी है
आदम के बेटों के पंजे शैतानी
नई सदी की यह त्रासद लाचारी है
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
सामाजिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
- अधबुनी रस्सी : एक परिकथा
- अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख
- अभी न होगा मेरा अंत : निराला का पुनर्पाठ
- आकाशधर्मी आचार्य पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी
- आदिवासी और दलित विमर्श : दो शोधपूर्ण कृतियाँ
- किंवदंतीपुरुष के मर्म की पहचान 'अकथ कहानी कबीर'
- प्राचीन भारत में खेल-कूद : स्वरूप एवं महत्व
- शब्दहीन का बेमिसाल सफ़र - डॉ. गोपाल शर्मा
- सामाजिक चेतना संपन्न एवं सोद्देश्य लघुकथाएँ-डॉ. रमा द्विवेदी कृत ‘मैं द्रौपदी नहीं हूँ’
- हमेशा क़ायम नहीं रहतीं ‘सरहदें’ : सुबोध
कविता
- अवसाद गीति
- आवास
- क्या है?
- क्यों यह गुंबद बनवाई है बतलाओ मुग़ले आज़म
- गोबर की छाप
- छब्बीस जनवरी
- दर्द भले कितना ही सहना
- दिल्ली से उठते हैं बादल और हवा में बह जाते हैं
- देश : दस तेवरियाँ
- धुँध, कुहासा, सर्द हवाएँ, भीषण चीला हो जाता है
- नाभिकुंड
- निवेदन
- पकने लगी फ़सल, रीझता किसान
- प्यार
- प्रिये चारुशीले
- महफ़िल में जयगान हो रहा लुच्चों का
- मार्च आँधी और आँधी जून है
- मैं आकाश बोल रहा हूँ
- मैं बुझे चाँद सा
- यह डगर कठिन है, तलवार दुधारी है
- यह समय है झूठ का, अब साँच को मत देख
- राजा सब नंगे होते हैं
- वसीयत
- संगम
- सत्य हुआ सत्ता का अनुचर, हर गंगे
- सबका देश समान है, सबका झंडा एक
- सूर्य: दस तेवरियाँ
- हाँ, सोने के बँगले में, सोते हैं राजाजी
ललित निबन्ध
दोहे
सांस्कृतिक आलेख
स्मृति लेख
साहित्यिक आलेख
- दक्खिनी हिंदी की परंपरा : ‘ऐब न राखें हिंदी बोल’
- भारतीय चिंतन परंपरा और ‘सप्तपर्णा’
- भारतीय साहित्य में दलित विमर्श : मणिपुरी समाज का संदर्भ
- रामकिशोर उपाध्याय की काव्यकृति 'दीवार में आले'
- लोकवादी भाषाचिंतक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
- वे विलक्षण थे क्योंकि वे साधारण थे!
- हिंदी के हिंडोले में जरा तो बैठ जाइए
- हिंदी भाषा के विकास में पत्र-पत्रिकाओं का योगदान
पुस्तक चर्चा
- ''माँ पर नहीं लिख सकता कविता''
- अपने हिस्से के पानी की तलाश
- आने वाला समय हिंदी का है
- क्या मैंने इस सफ़ेदी की कामना की थी? : द्रौपदी का आत्म साक्षात्कार
- वसंत बास चुन-चुन के चुनरी बँधे : ‘दक्खिनी हिंदी काव्य संचयन’
- हिंदी काव्य-नाटक और युगबोध
- हिंदी भाषा चिंतन : विरासत से विस्तार तक
- ‘क्षण के घेरे में घिरा नहीं‘ : त्रिलोचन का स्मरण
- ’चाहती हूँ मैं, नगाड़े की तरह बजें मेरे शब्द‘
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं