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लेखिका अंजना वर्मा से एक बातचीत

“बच्चों के मन में साहित्य के प्रति रुचि जगानी होगी”—अंजना वर्मा

 

वर्तमान रचना परिदृश्य की एक सुपरिचित कवयित्री, कथाकार एवं गीतकार अंजना वर्मा की कविता, कहानियाँ, गीत, दोहा, लोरी, यात्रावृत्त, वन्दना, बाल-साहित्य तथा समीक्षाओं के अब तक इक्कीस मौलिक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। आप बिहार राज्य के नीतिश्वर महाविद्यालय (बी.आर.ए. बिहार विश्वविद्यालय), मुजफ़्फ़रपुर से प्रोफ़ेसर एवं हिंदी विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुई हैं। उन्होंने वर्षों तक चौराहा अर्धवार्षिक पत्रिका का प्रकाशन एवं संपादन भी किया। आपके साहित्यिक जीवन रमण साहित्य सम्मान, महाकवि राकेश गंधज्वार सम्मान, राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान, शब्द साधना सम्मान, रॉक पेबल्स अवार्ड, राष्ट्रीय भारतीय स्वाभिमान न्यास एवं यू.एस.एम. पत्रिका के ज़रिए चौराहा को सम्मान, रमण शिखर सम्मान, नीतिश्वर महाविद्यालय विशिष्ट सम्मान, चित्रांश कुलभाष्कर सम्मान, कविता कोश सम्मान, सेवक साहित्यश्री सम्मान आदि से अलंकृत है। प्रस्तुत है यहाँ वैद्यनाथ उपाध्याय से हुई एक बातचीत के संपादित अंश:

 

वैद्यनाथ उपाध्याय:

आपने लेखन कब से प्रारंभ किया? सबसे पहली रचना कौन सी थी? 

अंजना वर्माः 

मैं बहुत बचपन से लिखती थी और लिखने की इच्छा भीतर से ही होती थी। जब किसी बात से मन उद्वेलित होता या आह्लादित होता, तो मैं अपनी संवेदनाएँ किसी से साझा करने के बजाय काग़ज़ पर उतार दिया करती थी। जहाँ तक उम्र की बात है, मेरी उम्र उस समय आठ या नौ के बीच रही होगी जब मैंने वसंत ऋतु पर एक कविता लिखी थी, जिसे अपने स्कूल के कविता पाठ में मैंने मंच से पढ़कर सुनाया भी था। 

वैद्यनाथ उपाध्याय:

आपके लेखन से जुड़ा कोई रोचक प्रसंग . . . ?

अंजना वर्माः 

ऐसा तो कुछ नहीं हुआ। लेकिन कवि-सम्मेलन में अपनी पहली सहभागिता याद कर हँसी आती है। वह मंच नीतिश्वर कॉलेज का ही था, जहाँ हिंदी विभाग में मैं बतौर सह-प्राध्यापिका काम कर रही थी। उस मंच पर बड़े-बड़े कवि आमंत्रित थे। गीतकार राजेंद्र सिंह, कवि रमण, शान्ति सुमन, सरोजिनी प्रीतम। और भी बहुत सारे कवि और शायर थे जिन्हें मैं पहचानती नहीं थी। अपने महाविद्यालय के कार्यक्रमों का मंच-संचालन मैं ही कर रही थी। कविता पाठ के लिए जब एक सज्जन कवियों की सूची बनाने लगे, तो मैंने भी अपना नाम उसमें जुड़वा दिया यह सोचते हुए कि इतने बड़े-बड़े कवियों के सामने मेरी क्या हस्ती है। यद्यपि मैंने बहुत अच्छी तरह काव्य-पाठ किया और लोगों से प्रशंसा भी मिली। 

वैद्यनाथ उपाध्याय:

आप अनेक विधाओं में लिखती हैं। किस विधा को अपने लिए उपयुक्त समझती हैं और क्यों? 

अंजना वर्माः 

मैंने बहुत सारी विधाओं में लिखा है: कविता, कहानी, गीत-ग़ज़ल, दोहा, लोरी, आलेख, समीक्षा, यात्रा-वृत्तांत, संस्मरण तथा बालगीत एवं बाल कहानियाँ। विवाह के गीत भी लिखे, जो अपने घर की शादियों के लिए लिखे गए। किस विधा को अपने लिए उपयुक्त बताऊँ? यह कहना कठिन है। मेरे अंतःकरण में कोई भी संवेदना अपनी विधा चुनकर ही प्रकट होती है। उसके लिए बहुत सोचना नहीं पड़ता। फिर भी कविता, गीत और कहानी ये तीन विधाएँ ऐसी हैं जिन्हें अक़्सर भावाभिव्यक्ति के लिए अपना लेती हूँ। जब विषय बड़ा होता है तो उसे बड़ा कैनवस चाहिए, जो प्रायः कहानी जैसी विधा में साकार हो पाता है। जब तरल संवेदना को छंदों से मुक्त रहकर कहा तो वह छंदमुक्त कविता हो गई और जब बात गहन संवेदना से भरी हो तो उसके बहाव के लिए गीत ही उपयुक्त होता है। 

वैद्यनाथ उपाध्याय:

परिवार ने आपके लेखन में क्या योगदान दिया है? 

अंजना वर्माः 

किसी के भी जीवन में उसके परिवार की बहुत बड़ी भूमिका होती है—ख़ासकर उसके माता-पिता और उसके पारिवारिक परिवेश की। मेरा परिवार सुशिक्षित और सुसंस्कृत रहा है। मेरे पिताजी ऑर्थोपिडिक सर्जन थे। उन्हें किताबों का अच्छा शौक़ था जिसके कारण घर में ही एक लाइब्रेरी बन गई थी। देश-विदेश के अनेक लेखकों के साहित्य से मेरा परिचय अपने घर की लाइब्रेरी में ही हुआ। दादाजी वकील थे, जिन्हें संस्कृत, अंग्रेज़ी और उर्दू का भी अच्छा ज्ञान था। वे भवन्स जर्नल और रीडर्स डाइजेस्ट पढ़ा करते थे। माँ तो सुशिक्षित थीं ही। उन्हें कविता का शौक़ था और अपने ज़माने में उन्होंने भी कुछ कविताओं की रचना की थीं। दादी-नानी भी पढ़ती-लिखती थीं। जैसा कि दादी बताती थीं कि एक बार दादी और बुआ ने मिलकर एक उपन्यास लिखना शुरू किया था जो अधूरा ही रह गया। दादी तो आँखों पर चश्मा चढ़ाए, मुँह में पान दबाए दिन-भर कुछ-न-कुछ पढ़ती ही रहती थीं। बच्चों की पत्रिकाएँ भी पढ़तीं। नानी नियमित रूप से कल्याण मँगाया करती थीं और पढ़ती थीं। वे कृष्ण की अनन्य भक्त थीं और उन्होंने कृष्ण विषयक पदों की रचना की थी। उनका नाम गंगाधरी देवी था। ‘गंगा भजनावली’ के नाम से उन्होंने अपने भक्ति-पदों का एक संकलन छपवाया था। जब आती थीं, तो बक्से में भरकर किताबें लातीं और घर आने वाले हर मेहमान को देतीं। परन्तु मेरे लिए नानी का कवि-व्यक्तित्व उनके अपार स्नेह और ममता के साये में छुप गया था, जिसे मैंने एक लंबा कालखंड बीत जाने पर पहचाना। यह सब होते हुए भी मैंने अपनी अंतःप्रेरणा से ही लिखना शुरू किया। माँ ने भी कभी कविताएँ रची थीं, यह बात मुझे तब मालूम हुई जब मैं लेखन से जुड़ चुकी थी। फिर भी यह सच है कि ऊपर की पीढ़ियों से ही यह गुण मेरे भीतर आया था। 

मेरे घर में बहुत सारी पत्रिकाएँ आतीं थीं: भवन्स जनरल, रीडर्स डाइजेस्ट, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग और हम दोनों बहनों के लिए पराग और नंदन। कभी-कभी चंदामामा भी। हम लोग घर से बाहर निकलते या सफ़र में होते तो पत्रिकाएँ ज़रूर खरीदवाते थे। पत्रिकाएँ हमारे मनोरंजन का एक बहुत बड़ा स्रोत थीं। मेरे पिताजी की दृष्टि में बेटा और बेटी में कोई फ़र्क़ नहीं था, जिसके कारण बेटों के साथ-साथ घर की बेटियों के लिए भी शिक्षा जगत में ऊँची डिग्रियों के लिए द्वार खुले हुए थे। 

माता-पिता की ओर से तो हर बात पर मेरा उत्साहवर्धन होता ही था। मैं जब लिखने लगी तो कहीं से कोई रुकावट आने का सवाल ही नहीं उठता था; बल्कि सबको बहुत अच्छा लगा। मैं कवि-गोष्ठियों में जाती थी, पति ने सदैव साथ दिया। बच्चों को भी बहुत अच्छा लगता था। मेरी बिटिया शेफालिका कुमार तो आठ वर्ष की अवस्था से ही लिखने लगी। उसकी पहली कविता ‘वाटर’ स्कूल की पत्रिका में छपी थी। और वर्तमान में वह एक मँजी हुई कहानीकार है। बेटा सिद्धार्थ वर्मा ने भी अनायास ही जो कहानी लिखी, वह प्रकाशित भी हो गई—वह परिपक्व रचना है। अपने बच्चों को मैंने कभी लिखने के लिए प्रेरित नहीं किया। फिर भी दोनों लिखने लगे। मेरी छोटी बहन डॉ. रंजना शरण सिन्हा अंग्रेज़ी की कवयित्री हैं और वंदना सहाय भी लिखती हैं। मेरी रचनाधर्मिता की पृष्ठभूमि में मेरे परिवार की बड़ी भूमिका है। 

वैद्यनाथ उपाध्याय:

लेखन से आपका कैसा लगाव है? 

अंजना वर्मा: 

लेखन तो मेरा जीवन ही है। इसे मैं अपने आत्मिक व्यक्तित्व का प्रतिबिंब कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी; क्योंकि लिखे बिना मैं नहीं रह सकती। यह मेरी पूरी दिनचर्या में पसरा हुआ है। सफ़र में भी लिखने की ज़रूरत पड़ जाती है। लिख लेने से ही मुझे अपार सुख मिल जाता था। इसके बिना मैं अपने आप को अधूरी समझती हूँ। 

वैद्यनाथ उपाध्याय:

आप जीवन में क्या बनना चाहती थीं? 

अंजना वर्मा: 

सच पूछिए तो यह प्रश्न हम लोगों के लिए नहीं था। हम लोगों के माता-पिता यह सोचते थे कि उन्हें अपनी संतानों को क्या बनाना है? माता-पिता जो क्षेत्र निर्धारित कर देते थे—हमें वही पथ पकड़ कर चलना होता था। मेरे माता-पिता ने मुझे डॉक्टर बनाना चाहा। चूँकि वे स्वयं डॉक्टर थे। इसीलिए बेटा के साथ-साथ बेटी को भी डॉक्टर बनाना चाहते थे। पर मैंने डॉक्टर बनना नहीं चाहा, क्योंकि डायसेक्शन मैं नहीं कर सकती थी। पिता की इच्छा न पूरी करने का बहुत दुख है मुझे—अभी तक। 

वैद्यनाथ उपाध्याय:

आपकी अब तक की सबसे प्रिय रचना कौन-सी है? 

अंजना वर्मा: 

एक रचनाकार को उसकी सारी रचनाएँ ही प्रिय होती हैं। मेरे लिए कह पाना मुश्किल है। फिर भी कुछ कविताएँ और कुछ कहानियाँ या गीत ऐसे हैं जिन्हें रचने के बाद मुझे आत्मिक सुख मिला और उन्हें पाठकों का भी अमित प्रेम मिला है। 

वैद्यनाथ उपाध्याय:

आज के डिजिटल युग में आपको साहित्य का भविष्य कैसा दिखता है? 

अंजना वर्मा: 

साहित्य अपने परंपरागत रूप में क्षीण हो गया है। यद्यपि पाठकों की संख्या कम होने के बावजूद पुस्तकें छप रही हैं; क्योंकि पुस्तकों के लिए भी साहित्य प्रेमियों के हृदय में आकर्षण बना हुआ है। परन्तु साहित्य के लिए डिजिटल मंच अब ज़रूरी हो गया है और इसी रूप में इसका भविष्य भी दिखाई दे रहा है। 

वैद्यनाथ उपाध्याय:

आपका सबसे प्रिय लेखक कौन हैं? 

अंजना वर्मा: 

प्रिय लेखक तो बहुत सारे हैं। किस-किस का नाम लूँ? लेखकों के साथ कवियों को भी जोड़ दीजिए तो एक लंबी शृंखला बन जाती है। अनेक कवियों और लेखकों ने अपनी कृतियों से प्रभावित किया है मुझे। लेकिन जिन लेखकों की कृतियाँ सदैव दिमाग़ में बनी रहती हैं उनमें तुलसीदास, सूरदास, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बंकिमचंद्र, शरतचन्द्र, प्रेमचंद, मुक्तिबोध, भीष्म साहनी, अज्ञेय, निराला, प्रसाद, महादेवी, बच्चन, शिवमंगल सिंह सुमन, दिनकर, रेणु, मंटो, चार्ल्स डिकेंस, राजा राव, आदि-आदि। सबका नाम लेना सम्भव नहीं। जितना मैंने कहा उससे कई गुना अधिक नाम छूट रहे हैं। 

वैद्यनाथ उपाध्याय:

बतौर शिक्षक आपके अनुभव कैसे रहे? 

अंजना वर्मा: 

मुझे बच्चों से यानी अपने छात्रों से बहुत प्रेम और सम्मान मिला है। मैं जब वर्ग में पढ़ाया करती थी तो मेरा लक्ष्य यही रहता था कि मैं कितना ज्ञान विद्यार्थियों को दे दूँ! किस तरह उन्हें पाठ समझा दूँ! पढ़ाना मेरे लिए आनंद का काम हुआ करता था और मेरे छात्रों को भी मेरे वर्ग में उपस्थित रहना अच्छा लगता था, जिसके कारण मेरे वर्ग में छात्रों की संख्या बढ़ जाती थी। छात्र मेरे भाषण को बड़ी गंभीरता से सुना करते थे। कभी-कभी लगातार वर्ग होते थे। दो मिनट सुस्ताने के लिए मैं स्‍टाफ रूम में बैठती तो कोई न कोई छात्र पहुँच जाता था मुझे बुलाने के लिए। 

कई छात्र घर तक पहुँच जाते थे पढ़ने या पाठ की कठिनाइयाँ दूर करने के लिए। उन्हें इतना विश्वास रहता था कि जाने पर मैडम मुझे पढ़ा देंगी और मैंने कभी उनका विश्वास टूटने नहीं दिया।  
वैद्यनाथ उपाध्याय:

नये लेखकों से आप क्या अपेक्षा रखती हैं? 

अंजना वर्मा: 

अपेक्षा तो नहीं कह सकती, पर यदि कोई सचमुच रचनाधर्मिता से जुड़ा हुआ है तो वह अपने समय-समाज और देश-दुनिया की अनदेखी नहीं कर सकता। नए लेखकों को भी अपने समय और समाज से जुड़कर ही सृजन-कर्म अपनाना होगा। अपने अंतर्मन को विस्तृत करके रचा गया साहित्य ही समाज को दिशा दे सकता है। 

वैद्यनाथ उपाध्याय:

साहित्य में रुचि रखने वालों की संख्या निरंतर कम होती जा रही है पाठक सृजन के लिए आपका क्या सुझाव है? 

अंजना वर्मा: 

आज समय ही हमें इस मोड़ पर ले आया है कि साहित्य अपने परंपरागत रूप में ग़ैरज़रूरी हो गया है। पहले अच्छा साहित्य पढ़ना और रचना बड़ा काम समझा जाता था। लेकिन वर्तमान समय में दुनिया अर्थ केंद्रित हो गई है। लाभ-लोभ के इस समय में और पैसा बटोरने की होड़ में साहित्य से क्या प्राप्त होने वाला है? इसीलिए उसकी पूछ नहीं है। लिखने वालों की भीड़ बढ़ गई है और पढ़ने वालों की संख्या कम हो गई है। साहित्य को जनता के बीच प्रतिष्ठित करने के लिए बच्चों के हृदय में साहित्य के प्रति रुचि जगानी होगी। उनके भीतर साहित्य के लिए सम्मान जागना होगा। साहित्य का भविष्य उनके ही हाथों में है। 

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