हाँ मैं उसी दौर की हूँ!
काव्य साहित्य | कविता अश्वनी कुमार 'जतन’15 Dec 2024 (अंक: 267, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
मैं कोई रोचक क़िस्सा नहीं
कहानी क़ाबिल ए ग़ौर की हूँ
जब भावनाओं के साथ परवरिश की जाती थी
हाँ मैं उसी दौर की हूँ . . .
मैं जैसी भी हूँ औरों से बहुत भली हूँ
क्यूँकि मैं अपने पैरों पर वाकर के सहारे नहीं
माँ बाबा की उँगली पकड़ कर चली हूँ
स्कूल जाते वक़्त मेरी माँ ने
नाश्तेदान में मैगी, सैंडविच नहीं लगाया है
मैंने तो बचपन से ही माँ के हाथ की
पूरी और पराँठा खाया है
माँ का ध्यान घर में बस मुझ पर ही होता था
क्यूँकि उस वक़्त हाथों में मोबाइल और
उसमें व्हाट्सएप नहीं होता था
स्कूल में मिला होमवर्क मुझे माँ कराती थी
ग़लती पर हाथ ज़ोर से ला कर माँ गाल पर धीरे से लगाती थी
पढ़ लिख कर अफ़सर बनने के ख़्वाब भी माँ ही दिखाती थी
और पापा के झूठे ग़ुस्से से मुझे बहुत डराती थी
रात को सोने के लिए मेरा अलग कमरा नहीं होता था
बड़े घर के बावजूद माँ मुझे अपने साथ सुलाती थी
दिन भर घर के काम करके वो थकती थी
पर सो जाने पर पैर वो मेरे दबाती थी
सुबह स्कूल के लिए वो मुझे तरह तरह के नामों से जगाती थी
हाँ मुझे याद है वो नींद से उठा कर मुझे ब्रश कराती थी
स्कूल की ड्रेस पहना कर जल्दी से वो नाश्ता बनाती थी
मुझे स्कूल पहुँचाने के लिए पापा को तेज़ आवाज़ में जगाती थी
चोटी बना कर वो मेरे गाल चूमती थी
फिर गोद में उठा कर सारे घर में घूमती थी
सुबह सुबह पापा मेरी वजह से
ठीक से सो भी नहीं पाते थे
कहीं मुझे स्कूल जाने में देर न हो जाए
इस वास्ते माँ से डाँट भी खाते थे
स्कूल ले जाने के लिए मुझे ट्रॉली नहीं आती थी
मैं तो पापा के साथ बतियाती जाती थी
भाइयों के होते हुए भी मेरी अहमियत घर में भारी थी
मैं तो घर में सबकी सबसे प्यारी थी
बड़ी हुई तो मैं स्कूल से कॉलेज जाने लगी
और माँ को मेरे भविष्य की चिंता थोड़ी सताने लगी
वैसे तो पापा अपनी नौकरी के कारण बाहर रहते थे
लेकिन एक साए के एहसास की तरह साथ रहते थे
वो मेरे साथ हैं ये पापा हमेशा एहसास दिलाते थे
घर चिट्ठियाँ लिख लिख कर वो मुझे ये बताते थे
आज पढ़ लिख कर मैं अपने पैरों पर खड़ी हूँ
उमर के लिहाज़ से अब मैं बड़ी हूँ
लेकिन माँ पापा की नज़र में मैं अब भी छोटी बच्ची हूँ
दुनिया चाहे जो समझे उनकी नज़र में मैं सच्ची हूँ
ये ज़िंदगी की कशमकश भी बड़ी अजीब है
वैसे मेरी नौकरी अपने शहर के क़रीब है
मेरी अहमियत वो मुझे हर पल कराते हैं
अब जब भी छुट्टियाँ होती हैं वो मुझे घर लेने आ जाते हैं
मेरी ज़रूरतों का उन्हें पूरा ध्यान रहता है
मेरे खाने सोने का उन्हें सही अनुमान रहता है
घर पहुँचते ही मैं ख़ूब हँसती हूँ मुस्कुराती हूँ
सच मानो इस उमर में भी बिलकुल बच्ची बन जाती हूँ
घर से वापस आने पर उनकी निगाहें मुझे दरवाज़े तक तकती हैं
वो मुझे दिल के नायाब टुकड़े की तरह सँजो कर रखती हैं
इतना निरिच्छित प्रेम कोई भी कभी जता नहीं सकता
जीवन में उनकी अहमियत कोई चाह कर भी घटा नहीं सकता
वो साथ हैं तो लगता है कि मैं ख़ालीपन के साथ भी पूरी हूँ
हाँ मैं ये स्वीकार करती हूँ कि
उनके बिना मैं अधूरी हूँ, मैं अधूरी हूँ!
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