हाय बुढ़ापा
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य कविता गौरीशंकर वैश्य ‘विनम्र’1 Jan 2024 (अंक: 244, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
बहुत बुरा है। हाय बुढ़ापा।
तेज़ छुरा है, हाय बुढ़ापा।
अब न सरकती जीवन-गाड़ी
टूटा धुरा है, हाय बुढ़ापा।
टॉफ़ी बचपन, रबड़ी यौवन
ज्यों कुरकुरा है, हाय बुढ़ापा।
इधर-उधर से राग, रंग, रस
रहा चुरा है, हाय बुढ़ापा।
नशा न मस्ती, न बेहोशी
नक़ली सुरा है, हाय बुढ़ापा।
केश श्वेत कर, दाँत ले गया
ठग ससुरा है, हाय बुढ़ापा।
बाँध न पाता फूटा लड्डू
अति भुरभुरा है, हाय बुढ़ापा।
घूम रहा मन गोवा, ऊटी
तन मथुरा है, हाय बुढ़ापा।
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