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हरियाणा के गाँवों से लुप्त होती जा रही लोक परंपरा साँझी

 

साँझी एक भारतीय लोक परंपरा और लोक कला है, जो मुख्यतः पितृ पक्ष के दौरान मनाई जाती है। इस दौरान अविवाहित लड़कियाँ मिट्टी और गोबर से देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाकर पूजा करती हैं। “साँझी” नाम संस्कृत शब्द “संध्या” से आया है, जिसका अर्थ है शाम का समय। यह कला ब्रज क्षेत्र से जुड़ी है, जहाँ इसे काग़ज़ पर नक़्क़ाशी (स्टेंसिलिंग) के रूप में भी मनाया जाता है। साँझी देवी-देवताओं, विशेष रूप से कृष्ण और राधा, के मनोरंजन का प्रतीक है, जो घर में सुख-समृद्धि लाते हैं। 

साँझी का महत्त्व और रूप

  • धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व: साँझी देवी-देवताओं की पूजा से जुड़ी है, ख़ासकर उन अविवाहित लड़कियों के बीच जो सुंदर पति की तलाश में होती हैं। 

  • कलात्मक रूप: यह रंगोली और दीवार चित्रकला का एक मिश्रण है, जो गोबर और मिट्टी से बनाई जाती है और विभिन्न आकृतियों में ढाली जाती है। 

  • ब्रज की अनूठी कला: मथुरा और वृंदावन में, साँझी एक पारंपरिक काग़ज़-काटने (स्टेंसिलिंग) कला है जो कृष्ण की लीलाओं को दर्शाती है। 

साँझी मनाने के विभिन्न तरीक़े

  • गोबर की साँझी: हरियाणा, राजस्थान और ब्रज में, साँझी को गाय के गोबर और मिट्टी से दीवारों पर बनाया जाता है। 

  • काग़ज़ की साँझी: ब्रज क्षेत्र में, यह काग़ज़ को काटकर जटिल डिज़ाइन बनाने की कला है। 

  • अन्य रूप: फूल साँझी, सूखे रंग की साँझी, या पानी पर आधारित साँझी भी लोकप्रिय हैं। 

साँझी का इतिहास 

  • श्रीमद्भागवतम् के अनुसार, राधा, गोपियों के साथ, कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए जंगल में फूल इकट्ठा करती थीं और ज़मीन पर साँझी के चित्र बनाती थीं। 

साँझी कला हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात सहित कई क्षेत्रों में मनाई जाती है। साँझी एक अनूठी लोक परंपरा है जिसकी अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान है। 

हरियाणा की लोक कला साँझी माई का अस्तित्व ख़तरे में है। वर्षों से तालाब की मिट्टी से साँझी माई, उनके भाई, आकाश में उड़ते तोते, जंगल में नाचते मोर, चाँद और सूरज की आकृतियाँ बनाई जाती थीं। हालाँकि, बदलते समय के साथ सांझी माई बनाने की लोक कला लुप्त होती जा रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह परंपरा आज भी लोगों द्वारा निभाई जाती है, लेकिन शहरी क्षेत्रों में सांझी माई अब दिखाई नहीं देतीं। ग़ौरतलब है कि शारदीय नवरात्रि के दौरान देवी नौ दिनों तक साँझी रूप में भक्तों के घरों में विराजमान रहती हैं। नौ दिनों की यह यात्रा तालाब से शुरू होकर तालाब पर ही समाप्त होती है। बुज़ुर्गों के अनुसार, साँझी बनाने, पूजन और विसर्जन की धार्मिक रस्में तब से शुरू हुईं जब तालाब का सम्बन्ध साँझी माई से ही था। गाँव की महिलाएँ अपने हाथों से तालाब से मिट्टी खोदकर घर लाती थीं और घर पर उस मिट्टी से साँझी माई और उनके परिवार की मूर्तियाँ बनाती थीं। नौ दिन बाद महिलाएँ साँझी माई के गीत गाती हुई तालाब के किनारे पहुँचती थीं और विधि-विधान के साथ साँझी माई का तालाब में विसर्जन किया जाता था। पहले साँझी माई, उनके भाई साँझी, आसमान में उड़ते तोते, जंगल में नाचते मोर, चाँद, सूरज और चमकते सितारे आदि की मूर्तियाँ बनाई जाती थीं। वर्तमान में आधुनिकता के दौर में यह लोक कला लुप्त होती जा रही है। उर्दू के एक सहायक प्रोफ़ेसर ने बताया कि साँझी हरियाणा की एक लोक कला है, जो नए दौर के कारण लुप्त होती जा रही है। साँझी हमारी प्राचीन लोक कला है, इसे विलुप्त होने से बचाना बहुत ज़रूरी है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो साँझी माई की कहानियों और किताबों के पन्नों तक ही सीमित रह जाएँगी। 

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