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युद्ध विराम पहलगाम 

 

यह वह कविता नहीं है
जिसे मैं तब लिखना चाहता था 
जब मेरी मर्ज़ी होगी 
आज पूरे देश में भयावह की स्थिति है 
जब मैं अपनी मेज़ पर बैठा था
सोच रहा था कि जो पन्ना सफ़ेद है
वह पन्ना लाल कैसे हो सकता है 
आप देखिए, 
मेरे दिमाग़ में और भी शब्द थे, 
फिर भी मैं यही छोड़ कर जा रहा हूँ
बस करो बस करो ‌। 
 
मैंने सोचा कि
यह युद्ध को मिटाने वाली कविता है
ऐसा लगता नहीं था 
इतनी शक्तिशाली कि 
दो देशों में ज्वालामुखी भड़क जाएगा 
दोनों तरफ़ के सैनिक मरेंगे 
आतंकी की कोई जाति धर्म नस्ल नहीं होती 
वह तो मारता रहता है 
यह संघर्ष और फूट से त्रस्त हो जाता है 
दुनिया के सभी घावों को भर देगी जंग
लेकिन ऐसा नहीं है। 
 
मैंने कल्पना की थी कि 
देश-प्रेमी इसे रोज़ाना उद्धृत करेंगे
कितने शहीद होंगे 
कितनी माताओं के लाल 
कितने पिताओं के लाल 
कितनी विधवाओं के सुहाग
उनके रोते हुए बच्चों को 
शांत करने के लिए इसे गाएँगी
और पूरी पीढ़ियों को नई उम्मीद मिलेगी 
या नहीं। 
 
मेरी बड़ी-बड़ी ख़्वाहिशें थीं। 
यक़ीन मानिए 
मैंने कोशिश की 
मानवता की परीक्षा ली 
और सबक़ सीखे 
लेकिन सही शब्द मुझसे छूट गए; 
अक्सर ऐसा होता है। 
इनके बदले में ये शब्द लें। 
 
अब क्या होगा इस देश का 
संसार का
हर जगह हाहाकार मचा हुआ है
अपने को ऊपर उठाने के लिए। 

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