इंसान रहने दो मुझे
काव्य साहित्य | कविता पूजा चौबे1 Nov 2025 (अंक: 287, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
ना नाम बताना ज़रूरी है, ना पहचान का कोई सवाल,
दिल से जो जुड़े, वही अपने, बाक़ी रिश्ते हैं बेहाल।
तेरी जात, मेरा मज़हब ये सब किताबों की बात है,
भूख में बाँटी रोटी ही असली इबादत की सौग़ात है।
किसी का धर्म पूछने से पहले उसका दर्द समझो,
जो हाथ उठते हैं दुआ में, उन्हीं से गले से लगो।
ना माथे की लकीरें देखो, ना रंग की परछाईं,
जो आँसू बहाए साथ तुम्हारे, वही है सच्चा राही।
बच्चे जब मिट्टी में सपने गढ़ते हैं,
तब ना मंदिर होता है, ना मस्जिद सजते हैं।
एक गेंद, एक हँसी, और साझी सीपियों की बात,
यहीं से शुरू होती है इंसानियत की शुरूआत।
तो मत बाँधो मुझे नाम, नस्ल, या नज़रों के घेरे में,
मैं साँस लेता हूँ हर धड़कन के बसेरे में।
मुझे मुसलमान या हिंदू ना बनाओ,
बस एक इंसान रहने दो इतना तो निभाओ।
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