मैं अभी भी यहीं हूँ
काव्य साहित्य | कविता पूजा चौबे1 Nov 2025 (अंक: 287, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
मैं अभी भी यहीं हूँ,
इस शहर के एक कोने में,
पर किसी की नज़र नहीं पड़ती—
इस चहल-पहल की दोपहरों में।
दरवाज़े पे सन्नाटा है,
दीवारें भी अब थक गई हैं,
जो ख़ुद को अपना कहते थे—
वो अब आवाज़ तक नहीं देते हैं।
जब तक कमाता था—
बच्चे भी साथ बैठते थे,
हर शाम मेरी बातें सुनते थे,
हँसी में सब रंग घोलते थे।
अब जब रुका हूँ तो—
पड़ोसी भी रास्ता मोड़ लेते हैं चुपचाप,
सोचते हैं—
“बहुत वक़्त होगा इसके पास।”
मेरा ज़िक्र शायद तब होगा
जब मैं एकदम ख़ामोश हो जाऊँगा,
जब मेरी कुर्सी ख़ाली रह जाएगी,
और चश्मा दीवार पर टँगा मिलेगा।
पर मैं शिकायत नहीं करता,
न रूठता हूँ, न कुछ कहता हूँ—
क्योंकि जानता हूँ,
हर चमकते पल के पीछे
एक पुरानी नींव होती है।
और मैं वही नींव हूँ—
जो अब भी यही हूँ,
टूटी नहीं हूँ—
बस चुप हो गई हूँ।
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