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जायज़ नाजायज़

 

अभी मंगरा का बचपना ठीक से ख़त्म भी नहीं हुआ था कि बदमाशियाँ उसकी शुरू हो गईं थीं, उसका जीने का ढंग ही बदल गया था और तभी उसके साथ वह हादसा हो गया था। 

उसी के ख़ातिर वैद्य साधू महतो को हमारे घर आना पड़़ा था। आज ही सुबह! शाम को ही उनसे फोन पर बातें हुई थीं। लाने–पहुँचाने वाली बात पर साफ़ मना करते हुए, “समय पर मैं ख़ुद पहुँच जाऊँगा, आप चिंता न करें!” उसने कहा था। 

मंगरा पिछले तीन दिनों से घर में पड़़ा-पड़़ा दर्द से कराह रहा था। दर्द भी ऐसा कि उसने खाना-पीना तक त्याग दिया था। दर्द से बेहाल! वह न उठ पा रहा था, न चल-फिर पा रहा था। हमेशा एक तरफ़ देह किए पड़़ा रहता। कुछ भी खाने दो, फ़क़त एक नज़र भर उसे देखता और मुँह दूसरी तरफ़ घुमा लेता था। उसकी यह हालत न उसकी माँ से देखी जा रही थी न मुझसे देखा जा रही थी। फिर भी हम कुछ नहीं कर पा रहे थे। उसके दर्द के आगे हम पूरी तरह लाचार और बेबस थे। जब भी मैं उसके पास जाता, उसकी आँखों से लोर टप-टप टपकने लगती और वह मुझे बड़े कातर नेत्रों से देखने लगता, उसका इस तरह देखना मुझसे देखा नहीं जा रहा था। कभी कभी उसकी डबडबाई आँखें देख मुझे लगता वह अपनी ग़लती पर पश्चाताप करने लगा है। और वह मुझसे कहना चाहता है कि आपकी बात कभी नहीं मानी सदा मनमानी करता रहा उसी का यह नतीजा है, शुरू में ही अगर हम आपकी बातें मान ली होतीं तो आज हमको यह दिन देखना नहीं पड़़ता। 

“मंगरा जियादा बदमाशी मत किया करो वर्ना कभी रोना भी पड़ सकता है . . .!” बचपन में कही मेरी यह बात आज मंगरा को शायद बहुत याद आ रही थी। वह बार-बार सुबक रहा था। 

आज भी मुझे याद है बचपन में ही वह बदमाशी पर उतर आया था और फिर कभी किसी की नहीं सुनी उसने और न अपनी आदतों से कभी बाज़ ही आया। जैसा जब मन किया मनमर्ज़ियाँ करता रहा, कहूँ तो जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया, उसकी नादानियाँ और शरारतें भी बड़ी होती गई। उसकी माँ का भी दोष कम नहीं था। 

“देखो, मंगरा को समझाओ!” मैं उसकी माँ से कहा करता। 

“बच्चा है! बचपना है! अभी शरारत नहीं करेगा तो क्या बुढ़ापे में करेगा . . .?” उसकी माँ उल्टे मुझसे सवाल कर देती। तब वह माँ का दूध पीना छोड़ मुझे चिढ़ाने सा मुँह करने लगता था। 

“शरारत तक तो ठीक है, पर यह तो कुछ ज़्यादा ही बेहूदा हरकतें करने लगा है और डाँटने की बजाय तुम उसे और सर पे चढ़ा रही है; यह ठीक नहीं है, मंगरा की। माँ!” मैं बिगड़ सा पड़़ता था। 

“तुम काहे इसके पीछे पड़़े रहते हो, खेलने दो न। यह मेरी देह पर चढ़े, कपार पर चढ़े—चढ़ने दो, बड़ा होगा तो ख़ुद ब ख़ुद समझदार हो जाएगा!” और उसकी माँ के सामने मेरी एक नहीं चलती और तब खदबदाते मन से उन दोनों माँ बेटे को देखता रह जाता था। इधर माँ की शह पाये मंगरा की उछल-कूद शुरू हो जाती थी। 

“डर है, बड़ा होकर कहीं यह हमें कोई परेशानी में न डाल दे और ख़ुद कोई मुसीबत मोल न ले ले। मुझे इसकी चिंता है . . .!”

“ऐसा कुछ नहीं होगा, यह मेरा बेटा है और इसकी हर हरकत पर मेरी कड़ी नज़र है . . .!”

“फिर भी . . . मेरा कहना था!”

“ ऐसा करो, अगले साल ठंड के दिनों में इसका नेगा करवा दो।”

“अगले साल क्यों, इसी साल क्यों नहीं? अभी ठंड गई कहाँ है!”

“कुछ मेरी भी बातें मान लो न . . .!” मंगरा की माँ मनुहार करने लगती और मैं उसका मुँह ताकने लगता था। 

“मंगरा कहाँ है . . .? बुलाइए . . .!” घर आते ही वैद्य साधू महतो ने पूछा था। 

“उसी के पास चलना होगा। वह यहाँ आ नहीं सकता है!” मैंने कहा। 

“तेनुघाट में आपका कोई जानकार वकील है . . .?” धानेश्वर महतो अचानक आँगन में आ टपका था। 

“क्यों? क्या हुआ . . .?” 

“रात को पुलिस दामाद को उठा कर ले गयी। आज सुबह उसे तेनुघाट चलान कर दिया . . .!” 

और धानेश्वर आँगन में ही माथा पकड़ कर बैठ गया था। 

“परसों तो पंचायत में समझौता हो गया था न, फिर यह सब कुछ . . .?” 

“हाँ हो तो गया था, पर बाद में किसी ने लड़की के बाप को बहका दिया कि कुँवारी लड़की है, हल्ला हो गया है, अब इसके साथ कौन तेली लड़का शादी करेगा, करमचंद से बोलो कि इसके साथ भी शादी कर लेगा, दामाद ने इंकार कर दिया। बेटी को लेकर उसका बाप कल सुबह थाने चला गया। लड़की ने थाने में बयान दिया है—करमचंद ने मेरे साथ बहुत बार बलात्कार किया है।” 

मन तो मेरा भी किया कि दो शब्द खरी-खोटी मैं भी इसे सुना दूँ कि किसने कहा था, घर में जवान पत्नी के रहते बाहर कुँवारी लड़की से इश्क़ लड़ाना! गाँव में सबको पता है कि बेटी को आगे कर लड़की की माँ दारू बेचने की धंधा करती है, यह तो एक दिन होना ही था लेकिन धानेश्वर से बस इतना ही कहा, “अच्छा, हम इस पर शाम को बात करेंगे!” 

“काकू, शाम को घर आना, माँ ने पंचायत बुलायी है!” धानेश्वर के जाते ही पूरनी देवी का बेटा नुना आकर सामने खड़ा हो गया। कल ऑफ़िस में आकर बाप के नाम कोर्ट का एक नोटिस रिसीव करा कर आया है, “काकू, एक आप ही है जो हमारे दर्द को समझते हैं” कह आया था। अब यहाँ भी माँ बेटा चाहते हैं कि पंचायत में हम उनकी आवाज़ बनें। पूरनी देवी नेमचन्द महतो की पहली पत्नी थी और नूना उन दोनों का पहला बेटा। पर नेमचन्द उसे अपना बेटा ही नहीं मानता, वह उसे नाजायज़ कहता है, “एक ही रात मर्द के साथ सोने से कोई औरत बच्चे की माँ बन जायेगी?” उसका सबसे बड़ा आरोप रहा है। नूना के जन्म के बाद ही नेमचन्द ने पूरनी के साथ अपने सारे रिश्ते तोड़ लिए थे। पूरनी के जीवन में फिर दूसरी रात नहीं आई। बाद में नेमचन्द ने सुखनी नाम की दूसरी औरत से शादी कर ली और कोलियरी रिकॉर्ड में उसका और उनसे जन्में बच्चों के नाम दर्ज करा दिए थे। पर नूना नाम सर्विस रिकॉर्ड में चढ़ने से वंचित रह गया। तभी से नूना और उसकी माँ नेमचन्द पर चढ़ाई किए हुए थे। आज की पंचायत में उन दोनों माँ-बेटे का अहम फ़ैसला होने वाला था। 

“ठीक है, अभी तुम जाओ, शाम को आता हूँ!”

“चलिए, मंगरा के पास चलते हैं, बाद में मुझे एक जगह और भी जाना है, वैसे आपके मंगरा को हुआ क्या था?” 

“उसे क्या कहते हैं लड़के लोग . . . इश्क़! प्यार! मोहब्बत! हमारा मंगरा भी उसी इश्क़ के चक्कर में पड़़ गया! सिलसिल के चक्कर में!”

“सिलसिल कौन . . .?” 

“मंगरा की दोस्त, जिसके पीछे मंगरा दीवाना था और समझता था कि वह सिर्फ़ उसी की है पर वह यह नहीं जानता था कि उसके पीछे कई और मंगरा-बुधना पड़े हुए हैं। जैसे रागनी को चाहने वाले विक्रम दास को यह पता नहीं था कि रागनी को चाहने वाले और भी चार हैं, एक साथ पिकनिक गये उन पाँचों ने मिलकर बेचारे विक्रम को दशम फ़ॉल में डुबो-डुबो के मार डाला था। इश्क़ का भूत कभी-कभी जान जाने के बाद ही उतरता है. तभी जाना था। यहाँ भी एक सिलसिल के पीछे सभी पागल! ‘एक अनार सौ बीमार’ वाली हालात बन आई थी। अभी तक उस पर मंगरा का ही अधिपत्य था, कहे तो ऐसा उसको वहम हो चुका था, वह उसका और सिलसिल सिर्फ़ उसकी वाली फ़ीलिंग्स जागी हुईं थीं! मंगरा और सिलसिल का जीवन एक साथ दौड़ रहा था। जैसे सिलसिल दौड़ पड़ती, मंगरा भी दौड़ पड़ता। उनके पीछे बाक़ियों भी दौड़ पड़ते थे, कभी जंगल की ओर तो कभी टांड गजार, झुरमुट-झाड़ियों में, दौड़ते-दौड़ते कभी अतिक्रमण कर किसी के खेत-बारी में घुस जाना। यह कई दिनों से चल रहा था। पहले कौन, पहले कौन के चक्कर में सभी एक दूसरे से लड़ भी पड़ते थे। एक दूसरे को धक्का मुक्की करना तो उनमें आम बात थी। 

“कई बार हमने मंगरा को समझाना चाहा कि बाबू इस तरह किसी के पीछे मत दौड़ो, कभी चोट घाट लगा तो जीवन भर लँगड़ा कर चलना पड़ेगा, जो एक का नहीं वह किसी का भी नहीं—यह भी जोड़ता। पर मंगरा काहे सुनता हमारी बात। रात दिन उसी सिलसिल के पीछे पड़ा रहता। खाने पीने कभी घर आता कभी नहीं, मंगरा ने कब माँ के आँचल को अलविदा कहा, माँ को भी पता नहीं चला। तब ममतामयी उसकी माँ ने भी तंग आकर उसे उसकी हालत पर छोड़ दिया था!” 

“इतना बड़ा बदमाश . . .!”

“आए है, उसकी बदमाशी का नमूना भी देख लीजिए!” मैंने कहा था, “परसों ही उसी सिलसिल ने उसे आवाज़ दी, मैं उसे रोकता रह गया पर नहीं माना, खाना छोड़ मुंडी उठा कर ऐसा दौड़ा ऐसा दौड़ा जैसे जीवन की आख़री दौड़-दौड़ रहा हो। वह सीधे सिलसिल के पास पहुँचा, दोनों में ख़ूब चूमा-चाटी और छेड़-छाड़ हुई, मंगरा उस पर लपकना चाहा‌, ‘यहाँ नहीं, चलो कहीं ओर . . .!’ इसके साथ ही सिलसिल दौड़ पड़ी उसके पीछे मंगरा भी दौड़ पड़ा था। फिर वे दोनों कहाँ ग़ायब हो गए किसी को कोई पता नहीं, कोई ख़बर नहीं। दिन भर क्या खाये क्या पिये कोई जानकारी नहीं। 

“अचानक शाम को एक लड़के ने बताया कि चोटाही के पास जामुन पेड़ के नीचे मंगरा गिरा पड़ा है।” 

“कैसे, क्या हुआ . . .?” सुन कर मैं चिंतित हो उठा। फिर उस लड़के को लिए मैं उधर दौड़ पड़ा। जाकर देखा सचमुच में जामून पेड़ के नीचे मंगरा दर्द से कराह रहा है, और चेहरा सुखे सखुआ पता की तरह हो गया है। 

‘आपका मंगरा, इस जामुन पेड़ के नीचे सिलसिल के साथ खेल रहा था, कभी उसको चाटता फिर चढ़ता, फिर चढ़ता फिर चटता। सीधे-सीधे उस पर चढ़-उतर रहा था। हम जामुन खाने पेड़ पर चढ़े हुए था तभी देखा सिलसिल अचानक से उछल पड़ी और मंगरा ज़मीन पर गिर पड़ा। मेंढक माफ़िक, पैर उसका तीरा गया और तभी सिलसिल को एक बूढ़ा भगा ले गया, अभी तक उन दोनों का भी कोई पता नहीं है।” लड़के ने बताया था।’

“आप तो हमें खरिहान में ले आए, आपका मजनूँ मंगरा कहाँ है . . .?” 

“वह देखिए, माचा (मचान) के नीचे बैठा हुआ है, मंगरा। अरे ओ मंगरा!” मुंडी घुमा कर मंगरा ने हमें अपनी ओर आते देखा ‌। 

“यह तो एक काला बछड़ा है, कमाल की बात है कि इसे अपना नाम मालूम है . . .!”

“यही हमारा मंगरा है-मजनूँ मंगरा!”

“क्या! फिर वह सिलसिल . . .?” 

“एक सफ़ेद जवान बाछी थी . . .!” मैंने जवाब में कहा 

“तो अभी तक आपने जितनी बातें कही, इश्क़ मोहब्बत पर जितने भाषण दिए सब इसी मंगरा और उस सिलसिल बाछी के लिए था . . .? ग़ज़ब की थोथी कूटते है आप! मैं तो समझा था, मंगरा आपके सगे बेटे का नाम है और सिलसिल कोई लड़की होगी!”

“आज के सगे बेटों का सिर्फ़ बाप के दौलत से प्यार रहता है, पर मंगरा हमें दिल से प्यार करता है . . . बस जल्दी से इसे ठीक कर दीजिए . . .!”

“चिंता की बात नहीं है, पूठा (पिण्डली) घसक गया है!” वैद्य साधू महतो ने पैर की पूरी तरह से जाँच-पड़ताल करने के बाद कहा। “बस गरम पानी और पायला (चावल-धान नापने का काँसा बर्तन) मँगा दीजिए . . .आपका मंगरा दो दिन में चलने के लायक़ हो जायेगा . . .!” 

आज नूना भी बहुत ख़ुश था। पंचायत का फ़ैसला उसके पक्ष में आया था। पंचों ने नूना को जायज़ मान लिया था। 

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