अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

नोमिनी

 

हादसा जब हुआ, मैं अठारह की थी और मैट्रिक की परीक्षा की तैयारी में लगी हुई थी। अच्छे नम्बर, ‘अच्छे अंक लाओ’ सुन सुन कर मेरे कान पक गए थे। मेरी पढ़ाई को लेकर घर में सभी मास्टर बने फिरते थे।

माँ दमे की मरीज़ थी, रुक रुक कर खाँसते रहती थी। परन्तु मेरी पढ़ाई पर उसका नॉन स्टॉप प्रवचन शुरू हो जाता ‘दोपहर को कहाँ चली गई थी तू, अपने कमरे में नहीं थी?’ शाम को माँ दिया-बाती जलाते जलाते बोल उठी ‘ज़्यादा घूमना फिरना तुम्हारा ठीक नहीं है। पढ़ाई चिनिया बादाम नहीं है, छिलका उड़ाया और मुँह में डाल लिया।!’

वहीं भाई किसी भूत की तरह मेरी पढ़ाई के पीछे पड़ा रहता। वह सप्ताह में सिर्फ़ एक दिन घर आता। ख़ुद तो मैट्रिक पास न कर सका था। लेकिन उसके बैग में मेरे लिए ढेरों हिदायतें भरी होती ‘पढ़ाई में कोई ढिलाई नहीं, यह लो हॉर्लिक्स, रात को सोने से पहले गरम कर एक गिलास रोज़ पीना, दिमाग़ और देह तंदुरुस्त रहेगा, तुम्हें अपनी बखरी में ही नहीं, पूरे गाँव में टॉप करना है!’ 

बाप रे बाप! काम पर जाने के पहले दादा सप्ताह भर का डोज़ एक ही दिन में मेरे भेजे में ठूँस जाता था। उसका बेसिक फंडा यह था कि ‘जैसे मैं मैट्रिक में फ़ेल किया हूँ, वैसे तू फ़ेल मत कर जाना मेरी बहन।’ फ़ेल शब्द से उसे सख़्त चिढ़ थी। फ़ेल के कारण ही उसे आज भी कार्यस्थल पर चेन खींचने पड़ते थे। उसके ससुराल की ज़मीन को सीसीएल कंपनी ने अधिग्रहण किया था और ज़मीन के बदले में उसे चेनमैन की नौकरी दी गई थी। 

अलबत्ता बाप कुछ नहीं कहता। वह शाम को काम से घर आता, पहले नहाता, फिर खाना बनने तक वह मेरे कमरे में ही आकर चुपचाप बैठ जाता और पढ़ते हुए मुझे निहारता रहता था ‌‌। इसे भी आप निगरानी ही कह सकते हैं। पढ़ने वाली सिर्फ़ एक मैं, और निगरानी करने वाले तीन! भौजी न तो मुझे कोई सलाह देती न भाव! आठवीं फ़ेल थी वो। 

घर में रुपये चार पैरों से चल कर आते थे। बाप मकोली भूमिगत खदान में लोडर था और भाई गोबिंदपुर खदान में चेनमैन। घर में दो-दो नौकरी पर एक भी पढ़ा-लिखा वाला काम नहीं! ढेरों पैसों के बावजूद समाज में कोई अहमियत, कोई इज़्ज़त प्रतिष्ठा नहीं और न खोज-ख़बर होती। हाँ, समाजिक काम पर समाज वाले नौकरी के नाम पर मनमाना चंदा रसीद ज़रूर काट देते ‘दो दो नौकरी है घर में’ लेकिन समाजिक मंचों पर बाप भाई को कोई सम्मान नहीं मिलता ‌ बैठने की जगह तक नहीं मिलती थी। इस पर भी भाई हमेशा ख़फ़ा-ख़फ़ा रहता था। 

मेरे ऊपर उम्मीदों का पहाड़ लदा था और सबकी उम्मीदों को ढोने वाली एक नन्ही सी जान! अब सबकी निगाहें मुझपर आ टिकी थीं। जैसे गंगोत्री से निकलने वाली कोई गंगा हूँ मैं और इस ख़ानदान में ‘अनपढ़ ख़ानदान’ का लगे दाग धब्बों को धोने वास्ते पैदा हुई हूँ। 

भाई बार-बार एक ही बात दुहराता ‘मेघना, मैं तुम्हारे हाथ में फ़र्स्ट डिवीज़न का सर्टिफ़िकेट देखना चाहता हूँ-बस!’

मैं दादा का मुँह ताकती रह जाती थी। मैं समझ नहीं पाती। मेरे प्रति भाई का यह प्यार था, अनुराग था या कुछ और। 

मैं भी घर वालों का, ख़ास कर भाई का, प्यार और स्नेह, को खोना नहीं चाहती थी। लग गई थी सबों की आकांक्षाओं को पूरा करने में। परन्तु काल गति की मति को आज तक कोई जान सका है भला। पल में प्रलय करे, रोक सके न कोई! सुधीर बाबू का कहा कितना सही लगता है ‘हरेक का जीवन तो अपना होता है मेघना, पर हर कोई ढंग से कहाँ जी पाता है!’

ग़लत नहीं कहते थे वो। मैं जब-जब अपनी नियति और भाग्य से लड़ना चाहा, तब तब लहुलुहान हुई हूँ। 

दफ़्तर का जीवन भी मेरे लिए एक नया जीवन था। एक नया अनुभव! जीवन में पहली बार सेक्स या फिर मांस मदिरा का सेवन करने जैसा। 

आज भी याद है मुझे। उस दिन पहली बार जब भाई के साथ ऑफ़िस में क़दम रखा था, दस-साढ़े दस का वक़्त था और ऑफ़िस की अधिकांश कुर्सियाँ ख़ाली और लावारिसों की भाँति जिधर-जिधर पड़ी हुई थीं। दफ़्तर की कार्य-संस्कृति की यह सूरत देख मन खिन्न हो उठा था। 
“छोड़ो न इससे तुम्हें क्या लेना-देना है . . .?” भाई बोला था, “चलो तुम्हें वहाँ ले चलता हूँ, जिनसे मिल कर तुम्हारी सोच बदल जाएगी!”

लगा था बाबूओं को कोढ़िया बीमारी ने पकड़ लिया था या प्रबंधन का उन पर अंकुश नहीं रह गया था। 

सुधीर बाबू, नाम ही काफ़ी था। ऑफ़िस और कोलियरी में किसी परिचय का मोहताज नहीं। तीस-बत्तीस की उम्र, भीड़ में रहते हुए भीड़ से अलग। सरल स्वभाव, आकर्षक चेहरा! मनमोहक मुस्कान काम के प्रति पूरी तरह समर्पित। नो कामचोरी, नो बहानेबाज़ी! काम तो काम। नीचे मन में उठे कोलाहल ऊपर आकर शांत हो गया था। दो तीन मज़दूर पहले से ही वहाँ मौजूद थे। 

“तुम लोग जाओ, डरने की ज़रूरत नहीं, किसी को कुछ नहीं होगा, पीओ साहब से मैं बात कर लूँगा!” थोड़ी देर बाद वे लोग चले गए। 

“बैठो!” उसने मुझसे कहा था। 

सकुचाते हुए मैं उसके सामने की कुर्सी पर बैठ गई थी। थर्मामीटर लेकर कोई मेरी धड़कनों को नापता ‘धाड़-धाड़ सुनाई पड़ता उसे’ ऐसा मुझे महसूस हो रहा था। 

“दादा, आज से मेघना आपकी देख-रेख में!” भाई ने जैसे उनके हवाले करते हुए कहा था। 

सुधीर बाबू ने मेरी ओर देखा, मैं नर्वस हो उठी थी। जाने अब क्या पूछ बैठें! और वही हुआ भी। 

“मेरे साथ काम करना पसंद करोगी . . .?” उन्होंने अचानक मुझसे पूछ लिया। 

मेरे मुँह से जवाब न निकला। 

“लगता है, यहाँ की भीड़-भाड़ देख डर गई, ठीक है दूसरी जगह ऑफ़िस में ही रखवा दूँगा!”

इससे पहले कि भाई कुछ बोले मैं ही बोल उठी, “नहीं, नहीं, मैं यहीं काम करूँगी, आपके साथ!”

“गुड! मेरा ऑफ़िस नौ बजे खुल जाता है। ठीक!”

मैं उन्हें चोर नज़रों से देखने लगी। वह भाई से कुछ कह रहे थे। 

भाग्य करवट बदल रहा था या क़िस्मत। लग रहा था जीवन की उदासी में रंग भरा जा रहा है। नये जीवन का उदय हो रहा था। दो घंटे बाद ही मुझे ज्वानिंग लेटर मिल गयी। सुधीर बाबू का सहायक बन कर काम करने का आदेश पत्र! 

पहले तो बड़ा अजीब लगा था। उनके टेबल पर लोगों की भीड़ देख कर। फिर जब पता चला सुधीर बाबू सिर्फ़ दफ़्तर का बाबू ही नहीं, मज़दूरों के युवा नेता भी थे ‘भीड़ तो रहेगी’ मन आश्वस्त हुआ था। 

“दोस्त बनना पसंद करोगी?” भाई के सामने ही फिर से उसने पूछ लिया था। 

दोस्त का मतलब क्या होता है, फ्रेंडशिप क्या होती है? मुझे आज तक कुछ पता नहीं था। उनकी उम्र को लेकर भी थोड़ी झिझक थी। उसे भी भाई ने कहा, “अरे, दोस्ती में उम्र कोई मायने नहीं रखती। यह तुम्हारी ख़ुशनसीबी है जो सुधीर बाबू जैसा दोस्त मिल रहा है!” 

“दोस्त बन कर!” मेरा जवाब था। 

मेरी नौकरी हादसे की उपज थी। उन्होंने जब यह जाना तो दुःख प्रकट करते हुए कहा, “कोई धूप में रह कर भी नहीं जलता है और कोई छाँव में ही चमड़ी जला लेता है मेघना! सुख-दुख से जीवन अलग नहीं होता। यह हमें इसी जीवन में जीना पड़ता है!” 

वह दफ़्तर का आदमी था। मज़दूर नेता था। परन्तु कोई दार्शनिक नहीं था। फिर भी उनकी हर बात में एक दर्शन होता, एक लॉजिक होता था। जीवन अपने तरीक़े से जीने का लॉजिक! 

यहीं मुझे गाँव की करेला काकी शान्ति मिली! शान्ति देवी से मिलकर विश्वास नहीं हो रहा था कि यह वही काकी है जो गाँव में हर किसी से झगड़ने का बहाना ढूँढ़ती फिरती थी। यह देख गाँव वालों ने करेला काकी की उपाधि तक उसे दे डाली थी। देख कर यह भी नहीं लगा वह तीन बच्चों की माँ है। उसकी कसी हुई देह, सुडौल स्तन! आज भी चालीस की काकी चौबीस की लग रही थी। सिंदुर छोड़ सब कुछ पहनती, लगाती थी करेला काकी। गाँव में ब्रा का नाम तक नहीं जानती थी। आज बिंदास उसे पहने हुए थी। घर में लड़ना उसे पति ने ही सिखाया था। वरना शुरू में औरतें उसे गूँगी पुतोहिया कहती थीं। दारू की नशे में धुत्त हर दिन उसका पति घर आता और फिर देर रात तक उस घर में लड़ने और चीखने की आवाज़ें आती रहती थीं। फिर एक दिन उस घर से चीखने की आवाज़ें सदा के लिए बंद हो गई। उस दिन उसके पति ने कुछ ज़्यादा ही पी रखी थी। काम से गिरते पड़ते किसी तरह घर पहुँचा। आँगन में क़दम रखा। पैर लड़खड़ाया और अगले ही पल आँगन में मवेशियों को पानी पीने वाले पत्थर के ढोंगा से उसका सर जा टकराया। अस्पताल ले जाते वक़्त रास्ते में दम तोड़ दिया। 

 ‘ब्रेन हेमरेज’ कंपनी डॉक्टर ने कारण में लिखा था। 

घर की तरह ऑफ़िस भी एक परिवार ही होता है। पर यहाँ रोज़ रिश्ते बनते-बिगड़ते हैं। कब कौन किसकी गाल सहला रहा है, कौन कब किसे चूम लेता है, समय भी जान नहीं पाता। आभासी दुनिया की तरह होता है ऑफ़िस का जीवन। संबंधों को बनते बिगड़ते देर नहीं लगती है। 

ऑफ़िस की नौकरी में मेरा तीन माह भी नहीं हुआ था कि ऑफ़िस जीवन का रहस्य और रोमांच सामने आने लगा था। उस दिन मैं ऑफ़िस थोड़ी देर से पहुँची थी। घरेलू टेंशन से रात भर सर दुखता रहा। सुधीर बाबू पहले ही पहुँच चुके थे। मैं ज्योंही ऑफ़िस में क़दम रखा, कानों में एक नारी आवाज़ टकराई, “कुँवारी छोंइड़ देख मुँह से लार टपकने लगा! उसे अपने पास रखने की क्या ज़रूरत थी . . .?” 

यह शान्ति काकी थी। बहुत दिनों बाद उसकी आवाज़ सुन रही थी। ‘कुँवारी छोंइड़!’ यानी मैं। मतलब! 

“बकवास बंद करो, और जाकर अपना काम करो!” सुधीर बाबू ने उसे बुरी तरह डपट दिया था। इसी के साथ वह बाहर हो गई और मैं अंदर! 

उस वक़्त मेरी मनःस्थिति ऐसी नहीं थी कि उन दोनों की स्थिति को ठीक-ठीक समझ पाती। ऑफ़िस के लिए घर से निकला तो घर का तूफ़ान मेरे अन्दर तोड़़-मरोड़ कर रहा था और मैं उसी आवेग में ऑफ़िस पहुँचा थी। सोचा था कि ऑफ़िस में शान्ति मिलेगी। शान्ति काकी तो मिली लेकिन मन को शान्ति नहीं मिली। यहाँ करेला काकी की कही बात कानों में गूँजने लगी थी ‘कुँवारी छोंइड़ देख मुँह में लार टपकने लगा है!’ उसका इशारा तो मेरी ओर ही था। 

मेरी भाव भंगिमा बहुत देर तक सुधीर बाबू से छिपी न रह सकी। मेरी मनोदशा को पढ़ते हुए उसने कहा, “क्या सोच रही हो मेघना? बात क्या है, बहुत ग़ुस्से में लग रही हो . . .?” 

“तक़दीर से अनबन चल रही है। बार बार मेरी ख़ुशियों को कुचलने चली आती है!” 

“मैं कुछ समझा नहीं, फिर कुछ हुआ क्या . . .?” 

“भाई, मेरी शादी मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ करने को आमादा है!”

“ओह! मैं समझा कुछ और बात है।” उसने मेरी ओर देखा , “फिर शादी तो कुँवारियों की ही होती है, हम जैसों की नहीं, तुम कुँवारी हो लेकिन तुम्हारी शादी इतनी जल्दी? नौकरी लगे अभी महज़ तीन महीने हो रहे हैं!” 

“शादी की जल्दी मुझे नहीं, मेरे भाई को है!”

“कारण . . .?” 

“बाप की नौकरी जो मैंने ले ली है।!”

“तो इसमें ग़लत क्या हुआ? भाई पहले से नौकरी कर रहा था। कुँवारी में तुम बड़ी थी। तुम न करती तो फिर नौकरी कौन करती . . .?” 

“भैया, भाभी को नौकरी देने की ज़िद पर अड़ा था। लेकिन माँ ने कहा ‘नौकरी, मेघना ही करेगी’ भाई नाराज़ होकर आ गया था। तब से नाराज़ ही है!”

“तुम्हारे बाप की नौकरी थी, भाभी के बाप का नहीं, माँ का फ़ैसला बिल्कुल सही फ़ैसला था। रही बात शादी की तो इसका निर्णय लेने का हक़ सिर्फ़ तुम्हारा है, इस मामले में तुम अपने मन की मालिकिन हो!”

“कैसी मालिकिन, मेरा तो जीवन ही बंधक बन गया है!”

“ऐसा क्यों सोचती है!” वह अपनी जगह से उठे और दो क़दम आगे बढ़ आए, “तुम्हारे मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कोई कुछ नहीं कर सकता है। तुम्हारा भाई भी नहीं!” कहते-कहते उसने अपना हाथ मेरे कंधे पर रख दिया, “तुम टेंशन मत लो, मैं हूँ न तुम्हारे साथ!” 

मेरे शरीर पर हाथ रखने वाले सुधीर बाबू पहले पुरुष थे। मुझे उनका हाथ अपने कंधे से तुरंत हटा देना चाहिए था। बल्कि झटक देना चाहिए था। पर ऐसा न कर उल्टे उसके सीने से लिपट जी भर रोने का मेरा मन कर रहा था। उनकी आँखों में मुझे प्रेम का एक खुला आकाश नज़र आ रहा था। 

सुधीर बाबू को बहुत कुछ पता नहीं था। मैं उसे बताना चाहती थी कि उसका भाई अब पहले वाला भाई नहीं रहा और न मैं उसकी लाड़ली बहन रही। नौकरी ने हम भाई-बहन को प्रतिद्वंद्वी बना दिया था। सुधीर बाबू को मेरी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था। सुधीर बाबू ही क्यों? तीसरा कोई सुनता तो वो भी मेरी बातों में यक़ीन नहीं करता। कोई भाई अपनी सगी बहन के साथ ऐसा किया हो, जैसा मेरे भाई सोहन ने किया था। संसार के किसी ग्रंथ में भी उसका ज़िक्र नहीं मिलता। 

सुधीर बाबू को यह भी कहाँ बोल पाई कि नौकरी के बहाने हमारे घर में पिछले एक महीने से महाभारत मचा हुआ। जहाँ वह यानी मैं अभिमन्यु की तरह जीवन के चक्रव्यूह में फँस चुकी हूँ। बच कर निकलना चाहूँ भी तो जीवन बचेगा कि नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं और बच भी गयी तो उसकी वुजूद क़ायम रह पाएगी इसका भी कुछ पता नहीं था। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं