अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

प्राइवेट बीवी

 

चार दिनों से मैं भारत दूर संचार निगम लिमिटेड के ऑफ़िस का चक्कर लगा लगा कर थक चुका था। आज पाँचवाँ दिन था। अब ख़ुद मुझे चक्कर आने लगा था। मेरा बैंकिंग, नेटवर्किंग और ईमेल का सारा काम रुक गया था। ऊपर से पिछले पाँच दिनों से ऑफ़िस बुला-बुला कर उसने मेरे दिमाग़ का दही बना रखा था। मैंने तय कर लिया था कि आज के बाद उस ऑफ़िस में फिर कभी क़दम नहीं रखूँगा। अजीब घन-चक्कर में मैं फँस गया था। मेरी हालत कमोबेश उस मदारी की तरह हो गयी थी जिसकी, नाच का करतब दिखाते-दिखाते बंदरिया किसी बंदर के साथ भाग गयी हो। और ज़मीन पर बैठा मदारी डंडा पीटता रह गया हो। 

पिछले ही माह बडे़ शौक़ से मैंने अपना एक सिम का “बी एस ऐन एल” में पोर्ट कराया था। जैसे आज के युवा अपनी पुरानी गर्ल फ़्रेंड को छोड़ बडे़ शौक़ से नई गर्ल फ़्रेंड के साथ शादी कर लेते हैं। कहा जाता है शादी का लड्डू और पड़ोसी की बीवी हर किसी को लुभाते हैं। मैं भी बहुत ख़ुश था। मेरे दिल में भी लड्डू फूट रहे थे। पर हाय री क़िस्मत! ‘सर मुड़ाते ही ओले पड़े’ जैसी हालत हो गई मेरी। 

एक दिन बाज़ार में मेरा मोबाइल गुम हो गया। जैसे सोनपुर मेले में कभी-कभी बीवियाँ गुम हो जाती हैं। लुटे-पिटे हालत में फिर भी बीवियाँ मिल जाती हैं। लेकिन गुम हुआ मोबाइल का मिलना समुंदर के बीच से मोती खोज निकालने के बराबर था। मोबाइल में दो सिम कार्ड लगे हुए थे। एक जियो का और दूसरा था बीएसऐनएल का। काफ़ी खोजबीन हुई। पर न मोबाइल मिला और न कोई सुराग़। हाथ मलता हुआ मैं नज़दीकी थाने में पहुँचा। पूरा का पूरा वाक़या एक काग़ज़ पर उतारा और थाने के बड़े बाबू के पास जा पहुँचा। सनाहा दर्ज करने हेतु आग्रह किया ‌। 

“दो दिन बाद आकर रिसिव ले लेना,” उधर से कहा गया। 

“सर, आज नहीं होगा?” 

“यह ब्लॉक नहीं है, कुछ ले-देकर हो जायेगा सोच रहे हो, यह थाना है थाना . . . जाओ!” खड़े-खड़े बड़े बाबू ने झाड़ दिया। 

क्षुब्ध मन लिए मैं चला आया था। 

औरत बिना पुरुष कुछ दिन पड़ोसन से हँस-बोल गुज़ारा कर भी लेगा लेकिन मोबाइल बिना उसकी नींद नहीं आयेगी। मोबाइल अपना ही अच्छा लगता है, पड़ोसन का नहीं। उस रात मेरी भी नींद आँखों में कटी। रात भर बुरे-बुरे सपने आते रहे। 

अगले ही दिन सुबह सीधे जियो ऑफ़िस जा पहुँचा। गार्ड ने गेट खोला। अंदर एक सुंदर सी कन्या ने स्वागत करते हुए कहा “आइए सर! क्या काम है?” 

“मेरा मोबाइल गुम हो गया है, मुझे फिर से वही नम्बर चाहिए . . .”

“रिप्लेस का मामला . . .!” लड़की ने कलिग लड़के की तरफ़ देखा। 

“सिम तुरंत चालू हो जायेगा . . . आप दस मिनट समय दीजिये, मोबाइल लाए है!” काउंटर में खड़े उस लड़के ने पूछा। 

“लाया नहीं है, पर अभी ख़रीद लूँगा!”

मोबाइल सेट झट उसी ऑफ़िस से ख़रीद लिया मैंने। दस मिनट तक वही लड़का जाने कहाँ गिटिर-पिटिर करता रहा, फिर एक सिम कार्ड उसने मोबाइल में डाला फिर मुझसे बोला, “आपका सिम चालू हो गया है, सर! अब आप बात कर सकते हैं।” 

पहला फोन मैंने बेटे को किया और ‘सावधानी से मोबाइल रखना’ कह दिया। 

दूसरे दिन मैं भारत दूर संचार निगम लिमिटेड के ऑफ़िस में पहुँचा। दो चार लोग पहले से वहाँ मौजूद थे। मैंने अपनी बात उसी भीड़ में घूसेड़ दी, “मेरा मोबाइल गुम हो गया है। पर मुझे वही नम्बर चाहिए प्लीज़ . . . ” 

जवाब उसी रूप में मिला, “थाने में दर्ज रिपोर्ट काॅपी, आधार कार्ड, वोटर कार्ड और एक फोटो कल लेते आइए।”

“इतने सारे काग़ज़?” 

“भाई, ऐसा है न, यह सरकारी संस्था है, कोई प्राइवेट मुर्गी फ़ॉर्म नहीं!”

“ठीक है महाशय, समझ गया, यह सरकारी संस्था है, कोई ठरकी संस्था नहीं। सभी पेपर लेकर आता हूँ।”
 
मैं सीधे थाने पहुँचा। बड़े बाबू कहीं निकल रहे थे। प्रणाम किया और मोबाइल गुम की बात कही तो उन्हें स्मरण हो आया। खड़े-खड़े उन्होंने आवाज़ दी, “सुनो, इसकी रिपोर्ट दर्ज हो चुकी है, दराज़ में फ़ाइल है, रिसिव कॉपी दे दो . . .” और वो जीप में जा बैठे थे। 

दूसरे दिन भारत दूर संचार निगम लिमिटेड के ऑफ़िस में फिर जा पहुँचा। ऑफ़िस कर्मचारी को शायद यह उम्मीद नहीं थी कि उसके कहे काग़ज़ातों के साथ उसका तबला बजाने मैं हाज़िर हो जाऊँगा। आश्चर्य भाव से उसने मुझे देखा। फिर पेपर देखने के बाद अपने काम पर लग गया। बीच-बीच में गायत्री मंत्र की तरह जाने क्या जपता रहा, “सरवर डोन . .. इ. .र . र, सरवर डोन . .. इ. .र . र!” इसी बीच उसने दो बार मेरा फोटो भी लिया। लेकिन खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाली चरितार्थ! आधा घंटा बीत गया। काम नहीं हुआ। सड़े आलू की तरह उसके मुँह से बात निकली, “भाई साहब, आज आपका काम नहीं हो सकेगा। सरवर डोन है, इरर के कारण काम नहीं हो रहा है। कल साढ़े दस बजे आइए . . . काम कर देंगे।”

ऑफ़िस से बाहर निकला तो पीछे से एक आदमी ने कहा, “क्या लगता है, कल आपका काम हो जायेगा . . .?” 

“बोला तो है!”

“आज मेरा चौथा दिन है, इसी काम के लिए घूम रहा हूँ!”उसने कहा और आगे बढ़ गया। 

अगले दिन मैं आधा घंटा लेट से पहुँचा। अपने ऑफ़िस में कुछ ज़रूरी काम करने थे। जब से इस ऑफ़िस का चक्कर लगाना शुरू किया था। ‌। अपने ऑफ़िस के कई काम पेंडिंग पड़ गये थे जिन्हें करना भी ज़रूरी था। 

“आज आप आधा घंटा लेट हो गये। इन दोनों का काम हो जाने के बाद ही आपका काम होगा . . .” मुझे देखते ही उसने कहा था। 

“ठीक है . . .” मैंने कहा और एक ख़ाली कुर्सी पर बैठ एक लंबी साँस ली और उस मनहूस घड़ी और उस मादरज़ात को कोसने लगा जिसने यह दिन दिखाया। तभी मेरे काम का नम्बर आया। फिर वही प्रक्रिया, नम्बर, फोटो . . टिप टाप, गिटिर-पिटिर! 

“लो आपका भी काम हो गया!” अंत में उसने कहा, “सौ रुपये दीजिये और यह सिम लगा लीजिए . . .”

“सर, आप ही लगा दीजिये न . . .”

“यह काम मेरा नहीं है, किसी से लगवा लीजिए . . .”

“यहाँ कौन लगा देगा, मुझे लगाना नहीं आता है!”

“मुझे भी नहीं आता है!”

“इस रूखेपन की वजह . . .?” 

“कोई वजह नहीं, शाम तक सिम चालू हो जायेगा . . . यह नम्बर रख लीजिए!” कह वह दूसरे कमरे में चला गया था। वहाँ अब रुकने की कोई वजह तो थी नहीं। मैंने भी ऑफ़िस को प्रणाम किया और चल दिया। 

अब मैं बेसब्री से शाम का इंतज़ार करने लगा। क्या कहूँ शाम तक बड़ी बेताब रहा मैं। 

इस सिम और नम्बर को लेकर मैं कई रातें ठीक से सोया नहीं था। मन में कितने तरह के बुरे-बुरे ख़्याल आते रहे। बैंकिंग, ऑनलाइन, गूगल और पे फोन, सभी इसी नम्बर से कनेक्ट था। साईबर क्राइम से दुनिया त्रस्त है, यह कौन नहीं जानता है। आज हर आदमी की मूडी सियार की तरह मोबाइल में फँसा हुआ है और उनकी अंडरवियर और साड़ी भी आधार की तरह मोबाइल से कनेक्ट है। आज आज़ाद आदमी मोबाइल का ग़ुलाम बन चुका है। मैं बड़ी शिद्दत से यह सब महसूस करता रहा। 

शाम तक सिम चालू नहीं हुआ। मैं धैर्य बनाये रखा। रात हो गयी। लेकिन फिर भी सिम चालू नहीं हुआ। धैर्य भी नहीं रहा। उन्हें फोन लगाया। जवाब मिला, “कुछ त्रुटि हो गई है, कल आपको फिर से ऑफ़िस आना होगा!”

“अब्बे!” गाली देनी चाही। लेकिन दी नहीं। सोचने लगा ‘उसे गाली देकर क्या होगा? एक नम्बर या सिम नहीं, यहाँ तो पूरा का पूरा सिस्टम करप्ट हो चुका है। और यह गाली देने या थाली पीटने से ख़त्म नहीं होगा। इसके लिए एक नई सोच विकसित करनी होगी, युवाओं को अपने ज़मीर को जगाना होगा। जो इस अंधभक्त राष्ट्र में अभी दूर दूर तक नज़र नहीं आता।’ 

मैं बहुत बड़ी उलझन में फँस गया था। समझ में नहीं आ रहा था कि अब मैं क्या करूँ? नम्बर छोड़ नहीं सकता, इसे रखना मेरी मजबूरी बन चुकी थी और रिश्वत दे नहीं सकता यह मेरे सिद्धांत के ख़िलाफ़ था। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं