अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मनहूस

 

पचास साल की उम्र में सुधीर बाबू के जीवन में कल जैसी घटना कभी नहीं घटी थी। घटना भी ऐसी वैसी नहीं सीधा मौत से साक्षात्कार! जीवन से मुठभेड़! 

रोज़ की तरह उस दिन भी वह अपनी दो लघेर (दुधेर) गायों को खेत की बग़ल की टुंगरी में चरा रहे थे। चार साढ़े चार की भोर थी। तभी बहू का घबराया हुआ फोन आया ‌। सुधीर बाबू एकदम से चौंक उठे! इतनी भोर बहू का फोन! उन्हें पता था, छोटी पोती सप्ताह दिन से बीमार थी। शहर के एक बड़े डॉक्टर से वहीं उसका इलाज चल रहा था। पर बुख़ार उतर ही नहीं रहा था। “उसे कहीं कुछ . . . शुभ शुभ! हे माते महामाय! पोती की रक्षा करना!” प्रार्थना की मुद्रा में सुधीर बाबू के दोनों हाथ ऊपर उठ गये थे। 

धड़कते दिल से सुधीर बाबू ने फोन रिसीव किया, “हेलो! बोलो बहू, छोटी ठीक है न . . .?” 

“बाबू जी!” लगा बहू रो रही है। 

“हाँ, हाँ, बोलो बहू मैंं सुन रहा हूँ!”

“बाबू जी, छोटी ठीक नहीं है, तीन दिनों से वह दूध भी नहीं पी रही है, सिर्फ़ मुलूर-मुलूर देखती है, बाबू जी मेरा मन बहुत घबरा रहा है, उसके पापा को काम से छुट्टी नहीं मिल रही है, आप आ जाइए। बाबू जी . . .!”

“घबराओ नहीं बहू, हमारी छोटी को कुछ नहीं होगा, महामाय उसकी रक्षा करेंगी! वह फिर हँसेगी, फिर किलकारी करेगी . . . हे माँ! हमारी पोती की रक्षा करना . . . बहू मैंं आ रहा हूँ, घबराना नहीं, उसे डॉक्टर झा के पास ले आऊँगा, वह बच्चों के बहुत अच्छे डॉक्टर है!”

“वो दोनों ही कालोनी की बीमारी थे, मनहूस और पनौती भी!” उस शाम सुधीर बाबू ग़ुस्से से फनफना उठे थे, “एक बंद क्वार्टरों की ताले तोड़ चोरी करता था, कालोनी की महिलाओं पर बुरी नज़र रखता था। दुनिया में ऐसा कोई बुरा काम नहीं था जो वह नहीं करता था। नाम था मुरारी। नाम में ही बड़का मने बीमारी और दूसरा गाड़ियों का चोर था—शंकर गोप, पूरा का पूरा दोगला। दोनों छंटे बदमाश और एक नम्बर के कमीने थे। इन दोनों से कालोनी के लोग ख़ासा परेशान थे। दोनों पर सिटी थाने में कई मामले दर्ज थे!” बोलते बोलते सुधीर बाबू अचानक से रुक गये थे। देखा सामने से मंदिर का पुजारी धीरज पाण्डेय आ रहा था, “इसे जब भी देखता हूँ, बाबू जी की कही बात याद आ जाती है ‘सूत बेधवों से सदैव दूर रहना’ तब से मैं इनसे दूर-दूर ही रहता हूँ!” उसने कहा था। 

ख़ैर, उस दिन फोन पर बहू से बात होने के बाद ही सुधीर बाबू ने गायों को घर की ओर दौड़ा दिया था और ख़ुद उनके पीछे-पीछे दौड़ पड़े थे। घर पहुँचकर पहले उसने एक गाय से दूध निकाला, दूसरे का बछड़ा खोल दिया पीने के लिए। मुँह तो सोकर उठकर ही धोने की आदत थी उनकी, कपड़े पहने और बिना कुछ खाए-पीए घर से निकल पड़े। जाते-जाते पत्नी से कहा, “छोटी की तबीयत ठीक नहीं है, वहीं जा रहा हूँ!” 

हर दिन भोर की उनकी जॉगिंग का ही यह कमाल था या फिर पोती की बीमारी की चिंता जो उस उम्र में भी वो तीन तल्ले की सीढ़ियाँ दौड़ते हुए चढ़ गये और हाँफे तक नहीं थे। पहले उसने पोती का हाल समाचार लिया फिर बोले, “जल्दी से तैयार हो जाओ, छोटी को लेकर हमें डॉक्टर झा के पास जाना है। बच्चों का स्पेशलिस्ट डॉक्टर है झा, क्षेत्र में बड़ा नाम है उनका!” कही बात फिर कही थी उसने। 

तभी पानी लेकर आई बड़ी पोती के सर पर हाथ रखा उसने और उसके हाथ से ग्लास लेकर पानी गटागट पी गया और टेबल पर रखी गाड़ी की चाभी लेकर नीचे उतर आए-तब तक गाड़ी घुमा लूँ, यही सोच नीचे उतरे थे वो। गाड़ी के पास पहुँचे तो देखा वो दोनों मनहूस बीमारी पहले से वहाँ खड़े थे ‌। 

“बीमारी या बिहारी . . .?” 

“अरे नहीं! वो दोनों बीमारी ही थे, कहो तो हमारे और पूरे कालोनी-सोसायटी के कैंसर थे दोनों!” बोलते-बोलते उस दिन उनका मूड एक दम से बिगड़ गया और कुनेन की गोली खाए जैसा मुँह हो गया था। 

साँस रुकने के पहले ज़िन्दगी नहीं रुकनी चाहिए। संघर्ष ही आदमी की पहचान होती है ‌। कितना ही बड़ा हादसा क्यों न हो, जीवन में निराशा कभी आने नहीं चाहिए। कहते हैं अगर हौसला ज़िन्दा हो तो आदमी को उठ खड़ा होने में देर नहीं लगती। यह अक्सर लोगों को मशवरा देते थे। 

वही सुधीर बाबू ने बंद आँखें खोलीं और गाड़ी के भीतर अगल-बग़ल निहारा-देखा। फिर एक गहरी साँस ली और ख़ुद को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया। फिर उन्होंने एक नज़र गाड़ी के आगे की ओर देखा। दीवार अपनी जगह सही सलामत खड़ी थी। फिर उसने गाड़ी के बाहर झाँका, अगल-बग़ल आश्चर्यचकित लोग खड़े थे! अब उसने ख़ुद को टटोल कर देखा, तो पता चला शरीर साबूत बचा हुआ है। हाथ पैर सलामत बचे हुए हैं। जीवन बाक़ी है। गेट खोल गाड़ी के बाहर आ गए। आँखों में बीमार पोती का चेहरा घूम गया। गाड़ी को उसी हाल में छोड़ वह दौड़ते हुए पुनः सीढ़ीयाँ चढ़ने लगे। 

घबराई बहू बेटे को फोन पर कह रही थ , “गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया, सामने की दीवार से ज़ोर की टक्कर हुई है . . .!”

“ कैसे हुआ यह?” 

“पता नहीं, यह सब कैसे हो गया!”

“बाबूजी कहाँ है, वो कैसे है, उन्हें चोट तो नहीं लगी। है?” बेटी से कहीं ज़्यादा बाप को लेकर बेटा चिंतित हो उठा था। 

“बहू, गाड़ी ठुक गई, छोटी के पापा से कह दो, मैं ठीक हूँ!” ऊपर आते ही सुधीर बाबू ने कहा। उसने बेटे की बात सुन ली थी। 

“बाबू जी ठीक हैं . . .!”

“ठीक है, जल्दी से ऑटो मँगा लो, सेक्टर फ़ोर के डॉक्टर मुखर्जी के पास छोटी को फ़ौरन ले जाओ, वो अभी अपनी क्लीनिक में बैठे हुए है, नम्बर लगवा दिया है . . . शाम को मैं पहुँच रहा हूँ!” 

डॉक्टर मुखर्जी बीजीएच अस्पताल के रिटायर्ड चाइल्ड स्पेशलिस्ट थे। बीमार बच्चों की उनकी चमत्कारी इलाज देख दवा दुकानों में उनकी चर्चा शुरू हो गई थी। 

“बच्ची को निमोनिया हो गया है, पर चिंता की कोई बात नहीं है, सूई लगवा दी गई है, शाम तक बुख़ार उतर जाएगा!” डॉक्टर मुखर्जी ने सुधीर बाबू से कहा था, “तीन सूई और पड़ेगी। डेली एक। बाक़ी दवा टाइम-टाइम पर देते रहना है!”

सुधीर बाबू ने राहत की साँस ली। अपनी और गाड़ी की चोट वो भूल चुके थे। 

बाहर निकल उसने अपनी इष्ट देवी को याद किया, “आभार-महामाय! आपने विनती सुन ली हमारी!”

इसी के साथ दवा की पर्ची लिए सुधीर बाबू सड़क पार मेडिसिन दुकान की ओर बढ़ गये थे। 

सप्ताह दिन बाद फिर सुधीर बाबू से मुलाक़ात हुई। वह अपने घर के बाहर अकेले बैठे हुए थे। उनकी पोती बिल्कुल अच्छी हो चुकी थी। फिर से वह हँसने खेलने लगी थी। पर अबकी सुधीर बाबू मुझे गुमसुम-सा दिखे, लगा बीमार हैं। पूछा तो बोले, “नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है!” 

गाड़ी एक्सीडेंट पर भी कुछ बोलने से मना करते रहे। उस घटना से जैसे उनका मन हदस गया था, ऐसा मेरा मानना था। बेटे के बार-बार कहने पर एक दिन केवल इतना ही कहा, “उस गाड़ी को बेच दो बेटे, अब मैं उसमें कभी नहीं बैठूँगा!” बेटा बाप की बात समझ नहीं पाया। वह यह मानने को तैयार नहीं था कि गाड़ी ड्राइव करने में उसके बाप से कोई भूल हुई है। इसके पीछे ज़रूर कोई ख़ास वजह रही होगी! 

“आख़िर उस दिन हुआ क्या था? इतना बड़ा हादसा हो गया, कोई तो वजह रही होगी। गियर-क्लच-एक्सीलेटर या फिर ब्रेक में किसी तरह की ग़फ़लत, कोई चूक . . . आज तो आपको बताना ही पड़ेगा!” मैं ज़िद कर उसी के बग़ल में बैठ गया था। मुझे आया देख मुस्कुराती माँ चाय बनाने लगी थी। वो ना-नुकर करते रहे। मैं भी ज़िद पर बैठा रहा। मुस्काती माँ चाय लेकर आ गई, तब भी उन्होंने मुँह बंद रखा। 

सहसा मैं उठ खड़ा हो गया। बोला, “बहू, चाय ले जाओ, अब मैं इस घर की चाय पानी कभी नहीं पिऊँगा। इस घर में मेरी कोई अहमियत नहीं है। जाता हूँ। यह मनमोहन सिंह बने रहें!” 

“बैठो!” उन्होंने हाथ पकड़ कर कहा और एक पल के लिए ख़ामोश ऊपर देखने लगे। बोले तो आवाज़ में बारूद भरा हुआ था, “वे दोनों साले मनहूस बीमारी, पहले से ही गाड़ी के पास खड़े थे। हमने एक नज़र उन दोनों पर डाली और गाड़ी का दरवाज़ा खोल अंदर जा बैठा। शीशा उतारा तो एक वो हरामी का जना, जिसका नाम मुरारी था ने जिराफ की भाँति अपनी मूँड़ी मेरे तरफ़ घुमाया और कहा ‘आप गाड़ी को बेचेंगे . . .?’ मैं उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया। उसने फिर अपनी बात दुहराई  ‘आप इस गाड़ी को बेचेंगे . . .?’

“‘अरे, नहीं भाई यह हमारी फ़ैमिली गाड़ी है’ . . . कहा और शीशा चढ़ा दिया। 

“उसने पुनः दरवाज़े पर नॉक किया। झुँझला कर मैंने गेट खोला। पूछा ‘क्या है?’ 

‘गाड़ी बेचेंगे, बहुत अच्छी कंडीशन में है, अच्छा दाम मिलेगा!’

‘मैंने कहा न, यह फ़ैमिली गाड़ी है, आपको बात समझ में नहीं आती है क्या?’ 

‘आती है, पर मैं आपके फ़ायदे की बात कर रहा हूँ!’ 

‘मेरा फ़ायदा-नुक़्सान की बात अब आप मुझे समझाएँगे?’ मैं एक बारगी झुँझला उठा ‘जाओ भाई कोई दूसरा काम देखो!’” 

इस पर उसकी बहू बीच में ही बोल पड़ी , “वह बहुत ही बदतमीज़ क़िस्म का आदमी है,  बाबू जी, महीना दिन पहले नीचे वाले राम जी चाचा को स्कूटर से निकलते वक़्त टोक दिया ‘क्यों, बूढ़े चाचा जी, इस बूढ़ी स्कूटर को कहीं धकेल क्यों नहीं देते!’ बेचारे चाचा को गोल चक्कर के पास एक ऑटो वाले ने ठोक दिया, महीना दिन से राम जी चाचा बिस्तर पर पड़े हुए हैं और स्कूटर कबाड़ी वाले ले गए . . .!”

“हाँ, उतना कहने के बावजूद भी वह गया नहीं था, ढीठ बन खड़ा रहा। ढीठ बन खड़ा ही नहीं रहा, फिर बोला ‘आप एक बार फिर सोच लीजिए, अच्छा दाम दिला दूँगा . . .’

‘अरे, अजीब थेथरई है! अपना ही बोले जा रहा है,’ ग़ुस्से से मैंने उसकी ओर देखा और गाड़ी मैंने गियर में डाल दी थी। फिर क्या हुआ मुझे पता नहीं। गाड़ी दीवार से टकरा चुकी थी और मेरा पैर ब्रेक पर था। समझ में नहीं आया, यह सब कैसे हुआ। गाड़ी उसी हालत में घुमा लाकर जब मैंने खड़ी की और ग़ुस्से से बाहर निकला इतने में वे दोनों कमीने वहाँ से ग़ायब चुके थे!”

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

स्मृति लेख

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं