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प्रेम की जीत

सुबह का समय था। बाहर से मेरे कुछ दोस्त आये हुए थे। कुछ खाने–पीने के बाद हम साथ बैठे चाय पी रहे थे। तभी हमने देखा दुखना घर आ गया है। वहीं से मैंने उसे आवाज़ दी, “अरे दुखना!”

तब वह पानी पी रहा था। 

“आप अरे कह कर बुलाते हैं उसे बुरा नहीं लगता है?” 

एक दोस्त ने एतराज़ जताया। 

“उसके जन्म के तीसरे दिन से ही हम सभी उसे इसी नाम से पुकारते-बुलाते हैं। कभी उसने बुरा नहीं माना।” 

“तो क्या जन्म के बाद ही आपने उसका यह नाम करण कर दिया था?” 

“हाँ, उसके जन्म के तीसरे दिन ही यह नाम रखा गया था। तब से वह इसी नाम से जाना जाता है!”

“कहाँ गया . . . आया नहीं . . .?” 

“आ जायेगा अभी वह कुछ खा रहा है!”

“अपने बेटे का इस तरह का नाम सुनकर उसकी माँ को बुरा नहीं लगता वो आपत्ति नहीं करती है?” 

“अब वह इस दुनिया में नहीं रही!” 

“ओह! जान कर बहुत दुःख हुआ, हमें मालूम नहीं था,” दूसरे ने अफ़सोस ज़ाहिर किया था। 

“कायल रथलाल घार छठियारी लागो!” गाँव की ठकुराइन दीदी सहसा आँगन में टपक पड़ी। ‌

“अबकी क्या हुआ दीदी . . .?” मैंने जानना चाहा

“आर कि हतअ! फेर बेटिये भेलअ तो!”

लगा बेटी होने से ठकुराइन दीदी भी ख़ुश नहीं थी। बहुत मिलने की उम्मीद ख़त्म हो गई थी। 

उसके जाते रविदास टोला का रति रविदास पहुँच गया। प्रणाम कर बग़ल कोने में खड़ा हो गया। 

“क्या बात है? सुबह सुबह . . .!” 

“फिर दोनों बचवन के स्कूल में नाम कयट गेलअ . . .!”

“काहे कटा . . .? पिछली बार हमने कहा था न कि समय पर महीना पैसा जमा कर देना! फिर . . .?” 

“कुआँ में काम करल हलिये, तीन महीना से पैसे नाय देल है कि करबअ . . .!”

“कितना लगेगा . . .?” 

“दोनों के सतरह सौ . . .!”

“आगे से कटना नाय चाही फिर हमरे पास मत आना, लो जाओ!” 

पाँव छू प्रणाम कर रति चला गया। यह देख एक दोस्त का माथा चकरा गया। बोला , “इन लोगों का भी आपके पास आना होता है?” 

“इन लोगों से क्या मतलब है आपका? अरे ये भी इंसान है। इसे भी समाज में पूरा पूरा जीने का हक़ है!” 

“फिर भी ऐसे लोगों को अपने से दूर ही रखना चाहिए . . .!”

“मैं जाति भेद को नहीं मानता हूँ आपको पता है . . .!” मैं थोड़ा गंभीर हो उठा था, “दुखना की माँ मरी थी तब यही लोग सबसे पहले मेरे घर पहुँचे थे . . . भाई ने बताया था।” 

“फिर भी . . .!”

“दुखना की माँ को गुज़रे कितने साल हो गए?” तीसरे दोस्त ने दुखना की माँ से फिर जोड़ दिया था। 

“चार साल बीत चुका है, पाँचवाँ साल चल रहा है . . .!”

तभी भाई ने आकर पूछा, “खसिया बेचेंगे? रमजान मियाँ बाहर खड़ा पूछ रहा है!” 

“साढ़े आठ हज़ार देगा तो बोलो शाम को मिलेगा? अभी बाहर से कुछ दोस्त लोग पधारे हैं।“

भाई चला गया तो एक दोस्त बोला, “आप दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेते हैं? अभी आपकी उम्र ही क्या हुई है। चालीस में भी चौंतीस के लगते हैं; गबरू जवान हैं! ख़ूबसूरत हैं! पचीस-तीस की कोई भी लड़की आप पर फ़िदा हो सकती है! कहें तो मैं खोज शुरू कर दूँ!”

“बाबूजी, आप लोग नहा-धोकर खाना खाएँगे या ऐसे ही, खाना बनकर रेड्डी है?” पायल बेटी ने आकर पूछा। 

“मैं तो नहा-धो लिया हूँ बेटे, और चाचा लोग भी नहाये से लग रहे हैं . . .!”

“हाँ हाँ हम दोनों भी फ़्रेश होकर ही घर से निकले हैं; बाक़ी खाना खा लेगें . . .!” तीसरे ने कहा

“ऐसा करो, थोड़ी देर बाद खाना लगा देना . . . ठीक है!”

“ठीक है बाबूजी . . .!” पायल चली गई तो दूसरे ने कहना शुरू किया, “मैं कह रहा था कि, दोनों बेटियाँ बड़ी हो रहीं हैं। कल इसकी शादी-बिहा हो जाएगा तो दोनों अपने अपने घर चली जाएँगी। बड़ा बेटा अभी बाहर पढ़ रहा है ज़ाहिर है इंजीनियरिंग कर लेने के बाद वो भी घर में बैठा नहीं रहेगा। कहीं न कहीं नौकरी लग ही जाएगी उसे। उस हालत में आप तो बिल्कुल अकेले हो जाएँगे। तब यह घर भाँय भाँय लगने लगेगा। भोजन पानी में भी परेशानी। आपके शादी कर लेने में कोई बुराई नहीं है!”

“मैं इसकी बात से सहमत हूँ। एक उम्र होती है। अभी सब कुछ आपके पक्ष में है। समय निकल जाने के बाद लोग बहुत तरह के सवाल उठाने लगते हैं!”

“वैसे दुखना की माँ को हुआ क्या था . . .?” 

“बुढ़ापा . . .!” मैंने मुस्कुराते हुए कहा। 

“हम कुछ समझे नहीं!” दोनों एक साथ बोल उठे थे। 

मैंने कहना जारी रखा, “जब मैं उसे घर लाया था तो भरपूर जवान थी; एकदम सिलसिल बाछी! और बहुत ग़ु्स्सैल भी। पर मैं उसे बहुत चाहता था। वो भी यहाँ आकर बेहद ख़ुश थी। देखते-देखते उसने मेरे घर में ख़ुशियों की एक संसार बसा लिया। परन्तु मन की बड़ी स्वाभिमानी थी। बाहर देह पर हाथ तक रखने नहीं देती थी लेकिन घर आते ही पूर्ण समर्पित! अपने बच्चों के प्रति उनका स्नेह और लगाव भी बेजोड़ था। हर हमेशा उन सबको अंकवारे चलती। पुचकारते-चाटते चूमते चलती। कभी अपनों से उन सबको अलग होने नहीं देती थी। लेकिन मुझे ज़रूरत के समय ही सटने देती; पकड़ने-छूने देती थी। एक बात और उसे आवारा कुत्तों से सख़्त नफ़रत थी। कभी सामने आ जाते तो वो उस पर ऐसे झपटती मानो कूट कर रख देगी, बेटा-बेटी सब तो उसे मिल गया था। पर वह परिवार नियोजन के पक्ष में कभी नहीं रही। तभी वो दिन आ गए और दुखना के जन्म के बाद वह बीमार पड़ गई। हमने प्रखंड के बड़े डॉक्टर को बुलाए। वह आया भी। देखते ही कहा , ’यह काफ़ी कमज़ोर हो गई है।’ और उसने कुछ दवाएँ लिखीं, दो सूई लगाई और तीन फाइल सीरप लिख कर बोले ’इसे मँगा कर घंटा-घंटा के अंतराल में तीनों फाइल सीरप पिला दीजिए . . .!’” 

“एक ही दिन में तीन फाइल सीरप . . .?” दूसरे ने आश्चर्य व्यक्त किया तो मैंने कहा, “मेरा भी यही सवाल था! तब डॉक्टर ने कहा, ’इसके शरीर में हिमोग्लोबिन की घोर कमी हो गई है। बच्चा होने के बाद और कमज़ोर हो गई है! सीरप से शरीर में ख़ून की मात्रा बढ़ जाएगी और यह धीरे धीरे ठीक होने लगेगी।’“

“फिर क्या हुआ . . .?” तीसरे ने आँगन की और देखते हुए कहा। 

“दवा मँगा कर मैंने वही किया जो डॉक्टर ने कहा। सीरप पिला दी और मैं धनबाद चला गया। भाई को बोल रखा कि वो इस पर ध्यान रखे। मैं रात को लौट न सका। भाई रात नौ बजे फ़ोन किया ’दुखना की माँ अब नहीं रही।’ मैं रात को ही घर लौट आता पर। उस दिन सुबह से जो बारिश शुरू हुई वो रात भर बंद नहीं हुई। दोस्तों ने भारी बारिश में घर लौटने से मना कर दिया। मैंने भाई से कहा, ’अब जो होना था वो तो हो गया। सुबह सब जुगाड़ कर रखना। मैं समय पर पहुँच जाऊँगा . . .!’” 

इसी बीच बेटी पायल ने खाने के लिए फिर आवाज़ लगा दी। 

“अब चलो खा ही लेते है . . .!” हम चारों खाने बैठ गये। 

खाने के बाद मैंने दुखना को फिर आवाज़ दी , “दुखना अरे वो दुखना . . . ” इस बार दुखना दौड़ा चला आया। 

“आपने पहले भी, ’दुखना’ बोल के आवाज़ दी थी तब भी वह नहीं आया था!” तीसरे ने कहा, “इस बार भी नहीं आया? उसकी जगह यह बछड़ा दौड़ा चला आया है। हम दुखना से मिलना चाहते हैं। उसको बुलाइए न!”

“यही तो हमारा दुखना है!” और मैं दुखना के गले को सहलाने लगा! 

“क्या . . .? यही वो दुखना है?” दोनों मित्र एक साथ उछल पड़े थे! 

“मतलब इस बछड़े का नाम दुखना है? 

“और जो आपने हमें कहानी सुनाई वो गाय इस दुखना की माँ थी?” 

“अभी तक आप हमें इसी बछड़े की माँ की कहानी सुना रहे थे?” तीसरे का ताज्जुब भरा स्वर फूटा। 

“हम तो समझ रहे थे आप हमें अपनी पत्नी के बारे में बता रहे हैं . . . ग़ज़ब! मैं अचंभित हूँ! आपके इस मनोभाव विधा देखकर! फिर पायल की माँ कहाँ है . . .?” 

“पायल बेटे, माँ को भेजो . . .!” मैंने आवाज़ दी।

“यह सब दुखना को दे दो कब से मेरा मुँह ताक रहा है,” आने पर मैंने पत्नी से कहा। 

सभी बचा-खुचा खाना एक गमले में दुखना के आगे डाल दिया गया। वह मज़े से खाने लगा . . .! 

“जब एक जानवर के प्रति आपका इतना प्रेम है तो रति रविदास तो फिर भी आदमी है,” पहली बार एक दोस्त ने मुँह खोला था। वह अब भी दुखना को अजूबे प्राणी के रूप में देख रहा था। 

“मुझे तो यह एक अविस्मरणीय जानवर मालूम पड़ता है,” दूसरा बोला था। 

“मैं तो अभी भी आश्चर्यचकित हूँ। एक जानवर जिसे अपना नाम मालूम है। और पुकार सुनकर वह दौड़ा चला आता है। प्रेम और स्नेह का अद्भुत नज़ारा!” 

“जानवर मुँह से कुछ बोल नहीं सकता है पर प्रेम की परिभाषा वो समझता है। अपनी भाव-भंगिमाओं से वह अपनी ख़ुशी और दुःख को व्यक्त कर देता है!” 

इस बीच दुखना खाना समाप्त कर। मेरे पास आया और मेरा हाथ चाटने लगा। उसका भाव बता रहा था और वह कहना चाहता था कि अगर आप न होते तो आज हम जीवित नहीं होते। तीनों दोस्त जल्दी-जल्दी अपने मोबाइल से हम दोनों का फोटो शूट करने लगे थे। 

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