कान्हा का जन्म उत्सव
काव्य साहित्य | कविता अतुल्य प्रकाश1 Nov 2025 (अंक: 287, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
था उस दिन कान्हा का जन्म उत्सव
पूरा जग नाच रहा था
बादल गरज रहे थे
अमृत बरसा रहे थे
पौधे भी नाच रहे थे
खेत में हरियाली छा गई थी
इस बीच घर में रखे गमले
एक बात को लेकर चिंतित थे
गुलाब, गेंदा एक ही बात सोच रहे थे
क्या भगवान हमें भूल गए?
काश हम लोग भी उत्सव का हिस्सा होते
काश हमें भी वह अमृत मिलता
जो खेत में बरस रहा है
काश हमें भी कान्हा जी की वह कृपा मिलती
पर हम इन सबसे वंचित रह गए
हम बंद रह गए
उस चाहरदिवारी में
हमने सबको सुख दिया
पर हम दुखी रह गए
प्रभु के जन्मोत्सव के दिन तो सर्वत्र दुनिया ख़ुश रहती है
हँसती है, गाती है,
ख़ुशी मनाती है
पर हम हम वंचित रह गए
कभी वह दिन भी आए
कान्हा हमारे पास आए
उनके संग हम खेलें
कूदें
नाचें—
उनकी कृपा हमें भी मिले
और हम भी ख़ुश हो जाएँ
पर यह क्या
यह उत्सव तो हो गया ख़त्म
बादल चले गए
पौधे रुक गए
क्या यह एक सपना है?
सामने कृष्ण दिख रहे हैं
क्या यह एक भ्रम है?
आ रहे हैं हमारी ओर
हम फिर ख़ुश हो जाएँगे
“मैं हूँ कृष्ण, मैं हूँ परमसत्य“
कहते हैं वासुदेव
सारे पौधे हो गए नए
खुली आँख
सब सपना
या कुछ और
चल रहा फागुन
है हर जगह ख़ुशियाँ
नहीं रहे हम वंचित
है हम पर भगवान की कृपा
“हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे,
राम हरे राम राम राम हरे हरे“
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