ख़्वाब
काव्य साहित्य | कविता डॉ. विकास वर्मा8 Dec 2014
मैंने देखा एक ख़्वाब,
एक बेहद हसीन ख़्वाब !
ख़्वाब में मैं था, तुम थीं,
रूमानियत के लमहे थे,
और मीठी-सी मदहोशी छाई थी दिलोदिमाग पर
तुम्हारी चाहत की।
ख़्वाब में बैठे थे हम दोनों किसी झील या नदी के किनारे,
शायद बंगला साहिब का सरोवर था, या फिर यमुना का कोई किनारा,
हम दोनों ही बैठे थे ख़ामोश, बिना एक लफ़्ज़ भी बोले,
लगता था जैसे,
शब्द मैला कर देंगे उन शुभ्र जादुई पलों को,
बुझा देंगे उस अद्भुत दिव्यता की लौ को।
उस ख़ामोशी में कितना कुछ बयां कर दिया था हम दोनों ने ही।
मैं थामे था तुम्हारा हाथ अपने हाथों में,
महसूस कर रहा था उस स्नेहिल स्पर्श की शाश्वत् गर्माहट।
मैंने कसकर थाम ली थी तुम्हारी कलाई,
जैसे कभी जुदा नहीं होने दूँगा तुम्हें ख़ुद से,
लड़ जाऊँगा भाग्य से,
मोड़ दूँगा नियति की दिशा,
झुठला दूँगा क़िस्मत के लिखे को।
और,
भरा जा रहा था मैं संतोष से, परम तृप्ति के एहसास से,
कि पा लिया है तुम्हें,
तुम, जो जन्मी हो मेरी तपस्या से....मेरे प्यार की तपस्या,
तुम, जो जन्मी हो मेरे लिए,
सिर्फ मेरे लिए.....
मैंने देखा एक ख़्वाब,
एक बेहद हसीन ख़्वाब........!
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