कोढ़
काव्य साहित्य | कविता डॉ. विकास वर्मा30 Oct 2014
रोज़ सुबह, मेट्रो स्टेशन से बाहर निकलते ही,
दिखाई दे जाता है मुझे,
सामने बस-स्टॉप के नज़दीक बैठा वो कृशकाय कोढ़ी।
हर राहगीर को मुस्कराकर करता है नमस्कार,
अपने दोनों विगलित हाथ जोड़कर,
फैला देता है अपनी गली हुई उँगलियों वाले दोनों हाथ,
कुछ पा जाने की आस में।
और मैं.....
अक्सर दूर से ही देख बदल लेता हूँ अपना रास्ता,
निकल जाता हूँ दूसरी तरफ से कन्नी काटते हुए,
या फिर,
देख कर भी अनदेखा कर देता हूँ उसके वजूद को,
और बेशर्मों की भाँति गुज़र जाता हूँ उसके नज़दीक से,
बिना उससे नज़रें मिलाए....
ऐसे ही कुछ क्षणों में जैसे,
हो जाता है कोढ़ मेरी संवेदनाओं को,
मेरी अंतरात्मा हो जाती है विगलित,
मेरी भावनाएँ विकृत होकर देने लगती हैं टीस,
और मेरा पूरा वजूद कोढ़ी बनकर खड़ा हो जाता है मेरे सामने.....
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