कुबड़ी आधुनिकता
काव्य साहित्य | कविता दीप्ति शर्मा19 Jul 2014
मेरा शहर खाँस रहा है
सुगबुगाता हुआ काँप रहा है
सड़ांध मारती नालियाँ
चिमनियों से उड़ता धुआँ
और झुकी हुयी पेड़ों की टहनियाँ
सलामी दे रहीं हैं
शहर के कूबड़ पर सरकती गाड़ियों को,
और वहीं इमारत की ऊपरी मंज़िल से
काँच की खिड़की से झाँकती एक लड़की
किताबों में छपी बैलगाड़ियाँ देख रही है
जो शहर के कूबड़ पर रेंगती थीं
किनारे खड़े बरगद के पेड़
बहुत से भाले लिये
सलामी दे रहे होते थे।
कुछ नहीं बदला आज तक
ना सड़क के कूबड़ जैसे हालात
ना उस पर दौड़ती /रेंगती गाड़ियाँ
आज भी सब वैसा ही है
बस आज वक़्त ने
आधुनिकता की चादर ओढ़ ली है।
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