कीमत
काव्य साहित्य | कविता दीप्ति शर्मा19 Jul 2014
बंद ताले की दो चाबियाँ
और वो जंग लगा ताला
आज भी बरसों की भाँति
उसी गेट पर लटका है
चाबियाँ टूट रहीं है
तो कभी मुड़ जा रहीं हैं
उसे खोलने के दौरान।
अब वो उन ठेक लगे हाथों की
मेहनत भी नहीं समझता
जिन्होंने उसे एक रूप दिया
उन ठेक लगे हाथों की
मेहनत की कीमत से दूर वो
आज महत्वाकांक्षी बन गया है
अपने अहं से दूसरों को दबाकर
स्वाभिमान की कीमत गवां रहा है
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