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लंगर भी धोखा दे जाए

 

लंगर भी धोखा दे जाए—
तो किसे पुकारे कश्ती? 
जिसे थामे थे उम्र भर, 
वही सबसे पहले छूटे। 
 
अल्लाह भी चुप, 
मल्लाह भी गुम, 
और मैं? 
मैं पानी के बीच—
अपने ही आँसुओं में बहती रही। 
 
किसी ने कहा—
“सब्र करो, ख़ुदा देख रहा है”, 
पर क्या देखना काफ़ी था
जब मेरा वुजूद ही
धीरे-धीरे गुम हो रहा था? 
 
तूफ़ानों का दोष नहीं देती, 
उनकी फ़ितरत है बिगाड़ना। 
पर जिसने वादा किया था
कि किनारे तक लाएँगे—
वो ही मौन क्यों हो गए? 
 
मैंने उसकी बाँहों को लंगर समझा था, 
पर वो तो तैरना भी नहीं जानता था। 
बस डूबती रही, सहती रही, 
और एक दिन—
ख़ुद को ही पतवार बना लिया। 
 
अब जब कोई कहता है—
“मैं तुम्हारा सहारा बनूँगा, ” 
तो मुस्कुरा कर कह देती हूँ—
“लंगर भी कभी-कभी धोखा दे जाते हैं। 
 
भरोसा ही था जो तोड़ा गया, 
वरना तूफ़ान तो पहले भी आए थे।” 
 
“मैं डूबी नहीं थी पानी में—
मैं डूबी थी उस ‘हाँ’ में
जो उसने मेरी चीख पर दी थी।” 

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