मुझे डूबने का हुनर आता है
काव्य साहित्य | कविता शारदा गुप्ता15 Aug 2025 (अंक: 282, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
मुझे डूबने का हुनर आता है,
इसलिए बचना नहीं सीखा मैंने।
हर बार जब तूफ़ान आया,
मैंने नाव नहीं—
अपनी साँसें सौंप दीं लहरों को।
मैं जानती हूँ
किनारा अक्सर धोखा देता है,
इसलिए भरोसा किया
उन्हीं गहराइयों पर
जो मुझे निगलने चली थीं।
मेरे पास कोई पतवार नहीं थी,
न कोई मल्लाह,
न दुआ, न ख़ुदा—
सिर्फ़ मेरा टूटा हुआ साहस था,
जिसे मैंने हाथों की तरह फैलाया।
लोग कहते हैं—
डूब जाना हार है।
मैं कहती हूँ—
डूब जाना हिम्मत है,
उस भरोसे को छोड़ने की,
जिसने कभी बचाया ही नहीं।
मैं हर बार डूबी,
हर बार टूटी,
पर हर बार उस सन्नाटे में
एक नई आवाज़ सुनी—
मेरी अपनी।
अब मुझे डूबने से डर नहीं लगता,
क्योंकि अब मैं जानती हूँ—
जो डूब सकता है,
वो ही उभर भी सकता है।
मैं हर बार डूबी—
पर पानी ने मुझे ज़हर नहीं दिया,
वो तो आईना था
जहाँ मैं अपनी असल सूरत देख पाई।
मैंने सीखा—
जो रोशनी दिखाए वो हमेशा सूरज नहीं होता,
कभी-कभी तूफ़ान के बीच
एक टूटती बिजली भी
सच का रास्ता दिखा देती है।
जब सब किनारों ने
मुझे “बचाने” से इंकार कर दिया,
तब मेरी डूबती हुई साँसों ने
मुझे जीना सिखाया।
डूबना मेरे लिए पराजय नहीं,
एक विद्रोह था—
उन रिश्तों के ख़िलाफ़
जो नाव तो बने, पर कभी साथ न चले।
मेरे अंदर एक समंदर था
जिसे सबने प्यास समझा।
मैं चिल्लाई नहीं,
मैं चुप रही—
क्योंकि मेरी ख़ामोशी में
लहरें उठती थीं।
लोग मुझे कहते रहे ‘कमज़ोर’,
पर उन्हें क्या पता—
जो डूबना जानता है,
वो ही सबसे पहले तैरना छोड़ता है।
अब मैं लौटना नहीं चाहती
अब मैं किनारों की तलाश में नहीं हूँ,
अब मैं पूछती नहीं—
“कौन मेरा सहारा बनेगा?”
मैंने अपनी डूबती हुई चीखों से
एक नई आवाज़ रची है—
जो किनारों से ऊँची है,
जो मल्लाहों से सच्ची है।
मुझे डूबने का हुनर आता है,
इसलिए जब दुनिया गिरती है—
मैं चुपचाप उठ खड़ी होती हूँ
और कहती हूँ—
“ये सिर्फ़ पानी था, मौत नहीं।”
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