महक
काव्य साहित्य | कविता अनिल कुमार पुरोहित15 Mar 2014
महक मेरे मन की—
अब तक छिपी हुई—
सीप में मोती सी।
कभी निकलने को बेकल
कभी डरी सहमी सी—
गुमसुम।
मुठ्ठी में क़ैद—
एक जुगनू बिखेरता
चमक अपनी।
बेख़बर क़ैद से—
अनजान दिन से।
जाने कहाँ तक
फैले ख़ुश्बू।
जाने कब तक
रहे चमक।
ना रोके रुकती ख़ुश्बू
ना बाँधे बँधती चमक।
कोई होड़ नहीं ख़ुश्बुओं में
मदमस्त बहती
तरंगों पर हवाओं
के साथ छिप जाती
कली में फिर
फूल से बिखरती।
चमक चमकती पेड़ों पर
अनजान अपनी ही
पहचान से।
महक मेरे मन की
बेकल-छिपी हुई . . .
बेकल बिखरने को॥
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