मनमीत
काव्य साहित्य | कविता अनिल कुमार पुरोहित4 Mar 2012
हाय री क़िस्मत . . .
बोल पर मेरे मत जाओ
अचानक मिले जो तुम,
चौंका दिया मुझे
आज पहली बार।
रोता बिलखता छोड़
जाने कहाँ गुम हो गए—निर्मोही।
आज साथ ले जाने को
इतने क्यों तत्पर?
जाने गिले-शिकवे कितने,
कितने क़िस्से अधूरे-कहने तुमसे।
कहाँ-कहाँ भटकता, ढूँढ़ता
नहीं फिरा मैं।
कोई पता भी ना दिया
पूछूँ तो किससे पूछूँ।
ना मुझे कोई यहाँ जानता,
ना तुम्हें कोई पहचानता,
कहो-कहाँ ओझल हो गए तुम?
मनमीत मेरे—
मैं ही जानता—कटे कैसे मेरे दिन रात।
वो निश्छल चेहरा तुम्हारा, वो कोमल स्पर्श
वो मीठे बोल, वो सपने सुहाने
समय की धार पर—सब धुलते गए।
जाने कितनों से मिला और कितनों से बिछड़ा
कितना सँजोया, और लुटाया
कभी मुस्कुराता तो कभी पोंछता आँसू
जहाँ भी रहा—एक टीस सी रही
मन के अन्दर
और मन के कोने में
इंतज़ार तुम्हारा।
आँसुओं पर मेरे मत जाओ
मुझे ही नहीं मालूम
घुले हैं इनमें ना जाने
कितने ख़ुशी और कितने ग़म।
देख तुम्हें आज अचानक यहाँ
इतराऊँ या कोसूँ क़िस्मत अपनी?
साथ अपने ले चलने का
कर रहे हो वादा या
फिर किसी और मेले में
छोड़ बिलखता—
ओझल होने का तो
नहीं कोई इरादा?
कभी सीपी देकर, तो कभी मोती
सब कुछ किनारे धर बेकल सा मैं
बार बार लौट—समा जाता उसमें!
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
अनूदित कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं