महुआ सी ज़िंदगी
काव्य साहित्य | कविता डॉ. अनुराधा चन्देल 'ओस'1 Oct 2019
महुआ सी है ज़िंदगी
कभी रस भरी
कभी गन्ध भरी
कभी मदभरी
सुकोमल, नाज़ुक सी
किसी को स्वीकार्य
किसी को नफ़रत
किसी के लिए दवा है
बहुतों के लिए नशा है
ये ज़िंदगी भी कभी
बहकती है मचलती है
महुआ सी ज़िंदगी
भाप बन उतरती है
ये ज़िंदगी भी मचलती है
रूप, पद, यौवन, धन के
के नशे में बहकती है
लड़खड़ाती है और गिराती है॥
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