अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मैं कृष्ण हूँ

 

मैं कृष्ण हूँ। 
हाँ वही जो कालरात्रि के मौन गर्भ में जन्मा था। 
वही जो यमुना की लहरों पर टिकी एक टोकरी में 
विश्व के भार को लिये बह निकला था
मैं कोई देवता नहीं
मैं वह ‘गोप-बालक’ हूँ
जिसने माखन में माँ का वात्सल्य चखा
और आँगन की मिट्टी में राधा की आँखों का विश्वास देखा। 
 
मुझसे पूछा गया 
तुम कौन हो?
मैं हँस पड़ा 
क्या कोई प्रेम से पूछता है कि वह कौन है?
क्या संगीत से उसका नाम पूछा जाता है?
मैं जन्मा था
किन्तु हर जन्म हर मृत्यु मेरे भीतर घटित होती रही। 
 
कभी राधा की आँखों में डूबकर
तो कभी द्रौपदी की पुकार पर पुलकित होकर
मैं अपने ही अस्तित्व को भूल गया। 
 ‘राधा’ नहीं वह कोई स्त्री नहीं थी। 
वह तो मेरा अधूरा संगीत थी
जिसे मैं जीवन भर खोजता रहा 
बाँसुरी के हर सुर में रास के हर घेरे में
विरह की हर चुप्पी में। 
 
मेरी बाँसुरी की तान
गोपियों के कानों से होकर उनके हृदय तक जाती थी। 
मैंने उन्हें वचन नहीं दिया
सिर्फ़ एक ‘स्मृति दी थी एक अधूरी रेखा’
जो आज भी हर रासलीला में पूर्णता ढूँढ़ती फिरती है। 
 
लोग कहते हैं 
मैं रण का सारथी था
पर मैं तो अर्जुन के मौन का उत्तर था। 
मैंने उसे युद्ध के लिए नहीं
जीवन के लिए तैयार किया था। 
 
‘कर्म करो बिना फल की आस के’
यह मैंने नहीं कहा
यह वह समय बोला था
जो अर्जुन के हाथों काँप रहा था
और मेरे हृदय में निःशब्द रो रहा था। 
 
द्रौपदी ने मुझे पुकारा था
नव वसन नहीं माँगे थे उसने
उसने तो सिर्फ़ एक ‘विश्वास’ माँगा था
कि जब सारे सम्बन्ध मौन हो जाएँ
तब कोई एक स्वर ऐसा हो जो उत्तर दे। 
और मैंने वही स्वर बनना स्वीकार किया।
  
मैं कृष्ण हूँ 
न बाँसुरी हूँ न रथ हूँ न मोरपंख न मुकुट। 
मैं बस वह हूँ 
जो ‘प्रेम में मौन’
और
‘त्याग में पूर्णता’ खोजता रहा। 
मैं वह हूँ 
जो हर युग में ‘तुम्हारे हृदय की खोज’ बना रहेगा। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सांस्कृतिक आलेख

कविता

कहानी

किशोर साहित्य कहानी

बाल साहित्य कविता

साहित्यिक आलेख

ललित निबन्ध

स्मृति लेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं