मेला
काव्य साहित्य | कविता सतीश ‘बब्बा’15 Sep 2024 (अंक: 261, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
सोच रहा था भाई,
आज बहना की,
गुड़िया नज़र आई,
अब नहीं होती मेरी लड़ाई!
दौड़ा गया,
भाई बहन के,
सास ससुर जीजा से,
अर्ज़ी लगाई!
मेला लगा है,
गाँव में उत्सव है,
सब कहते हैं,
चुन्नी क्यों नहीं आई है!
लेकर आया भाई चुन्नी को,
बच्चे ख़ुश थे,
बुआ आई, बुआ आई,
घर में ख़ुशियाँ छाईं!
गाँव भर में रिश्ते उसके,
किसी की बेटी,
किसी की बहना,
किसी की पोती लगती!
अब नहीं जन्मदाता,
माई बाप हैं तो क्या,
गाँव पूरा परिवार है,
मेले में होती भेंट भलाई!
मेले में चुन्नी ख़ुश थी,
आँखें उसकी भरी थीं,
बाप की याद आ गई थी,
अम्मा की तो परछाईं थी!
रोने लगी चुन्नी याद कर,
यहाँ दुकान होती ज़ाहिर की,
भाई जो लड़ता रहता था,
अब समझी प्यारा कितना था!
भाई दौड़ दौड़कर,
चाट मिठाई लाता है,
भाँजे को अपनी गोद में लेता है,
जो माँगता वही दिलाता है!
एक दिन का मेला था,
ख़ुशियों का बसेरा था,
एक दिन को चुन्नी आई थी,
प्रेम ही प्रेम बरसाई थी!
रोकर चुन्नी चली गई,
घर को सूना कर गई,
रोता है चुन्नी का भाई,
बचपन की यादें आई!
एक दिन का मेला भाई,
कैसी है यह रीति बनाई,
ऐसा ही है जीवन मेला,
शाम होते ही उदसता मेला!!
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं