अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मेरे भीतर कौन गाता है? 


टूटा देह का इकतारा
फिर ये मेरे भीतर कौन गाता है? 
 
रह गए जो बोल अनकहे
ये कौन सुनता सुनाता है
बन्द है मेरे नयन कोटर
फिर कौन मुझे छू कर जाता है
निकल कर मेरे भीतर से
ये कौन दूर खड़ा
हँसता मुस्कुराता है? 
टूटा देह का इकतारा
फिर ये मेरे भीतर कौन गाता है? 
 
नहीं आती हिचकी
न ही मैं तनिक खिसकी
फिर भी शीतल समीर का झोंका
पोर पोर झँकृत कर जाता है
रन्ध्र रन्ध्र सुवास महकाता है
सुदूर हिमालय पर पारिजात 
कहीं खिलखिलाता है!! 
टूटा देह का इकतारा
फिर ये भीतर कौन गाता है?
 
देखती हूँ इर्द गिर्द
खिल उठे कितने ही कँवल हैं
पद्म पद्म पर सहस्त्रदल
झर झर झर भीतर निर्झर है
तर है कंठ, तृप्त प्यास है
जोगिया तेरा रंग ख़ास है
कभी हरा है, कभी गेरुआ
कहीं दूर नीलाभ सितारा बिन 
नभ ही टिमटिम झिलमिलाता है!! 
बिन सकोरे भीतर मेरे
ये कौन अथक दीया जलाता है? 
टूटा देह का इकतारा
फिर ये मेरे भीतर कौन गाता है? 
 
बिन केसर बिन अक्षत अर्चन
ये कौन मुझे अंगराग लगाता 
कभी उष्ण से तप्त कुंड में
कौन मुझे गोता लगवाता 
बिन नदी कूप ताल सरवर
ये कौन मुझे प्रतिक्षण नहलाता है
टूट देह का इकतारा 
फिर ये मेरे भीतर कौन गाता है? 
 
सो गई मैं बंद हैं चक्षु
सो गया ब्रह्मांड पूरा 
पाँखि, पत्ती, सोये सप्त स्वर
फिर ये मेरे भीतर कौन 
जाग कर अघट टेर लगाता है
अभान में भान का यह
कौन हेतु बन जाता है
पंचभूतों से पृथक फिर भी 
न ही मैं है, न ही तू है, 
शेष पर अशेष पूरित
अस्तित्व की आँच अगणित!! 
ये कौन भीतर लहलहाता है
चेत और अचेत के बीच
सवर्ण कलश छलकाता है
टूटा है देह का इकतारा
फिर ये मेरे भीतर कौन गाता है? 
 
खिले हुए पद्मों के नीचे
जल नहीं, न कीच ताल है
योगाग्नि के हवनकुंड में
बिन अनल ही ताप-ताप है
जोगी के संग, जोगी के रंग
जला तपा कर कनक से
कुंदन रोज़ मुझे क्यों कर जाता है
पद्म पद्म अनुराग सुधा का
अमृत मुझ पर बरसाता है। 
टूटा देह का इकतारा है
फिर ये मेरे भीतर कौन गाता है?

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं