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मेरी अमर रचना 

क्या करूँ, बड़ी परीक्षा की घड़ी आन पड़ी है। व्यंग्य लिखने बैठा हूँ, लिखा नहीं जा रहा है, मैंने भी सोच रखा है, चाहे कुछ भी हो जाए . . . कोई ऐसी रचना लिख डालूँ जो अमर हो जाए। जब से पता चला है की व्यंग्य विधा को शूद्र की श्रेणी से निकालकर साहित्य समाज में बैठने उठने लायक़ जगह दे दी है, हमें भी थोड़ी आशा जगी है। पता नहीं लिखने बैठते है तो क़लम की ज़ुबान मंथरा की तरह टेढ़ी ही चलती है। तारक मेहता साहब का उलटा चश्मा शायद नज़र पर चढ़ गया है, सब कुछ उलटा-पुलटा ही नज़र आता है। और इसलिए जो लिखते हैं, उसे पाठक लोग व्यंग्य समझ बैठते हैं। लेकिन पाठकों के समझने से क्या होता है, पाठक रचनाओं को मरने नहीं देंगे, और जब तक रचनाएँ मरेंगी नहीं, तब तक अमरत्व कैसे प्राप्त करेंगी। रचना को अमरत्व प्राप्त करने के लिए न जाने कितनी शहादतों से गुज़रना पड़ता है। 

अपनी रचना को अमृतत्व प्राप्त कराना एक साहित्यकार की महती ज़रूरत है। इसी अमृतत्व के लिए साहित्यकार रोज़-रोज़ मरता और गिरता है। कुछ दस तरीक़ों से मरता है, अपने आपको गिराता भी है, अपने आदर्श मूल्यों को गिराता है, उन मठाधीशों के चरणों में गिरता जो उन्हें अमर रचना रचने का कोई शॉर्टकट फंडा बता दे, अपनी किसी रचना की नक़ल करवा दें, या कहीं किसी दफ़न अमर रचना को उखाड़कर उसकी गंध सुँघा दे। सभी मठाधीशों के गुटों की अपनी-अपनी अमर रचनाएँ है, जिन्हें इन मठाधीशों ने छुपा रखा है, अपने झोलों में, आलमारियों की बंद शेल्फ़ों में। ये अमर रचनाएँ रोज़ दिहाड़ी मज़दूर की तरह सुबह काम पर निकलती हैं, किसी कोर्स की किताब में लगने को, कहीं छपने को, कोई पुरस्कार हथियाने को, किसी समिती या आयोग में कुर्सी कबाड़ने को . . .! क्या करें लेखक इन अमर रचनाओं पर मर ही नहीं रहा, वो तो इसके बजाय फ़ेसबुक पर किसी नवयौवना की मटकती कमर पर मरना ज़्यादा अच्छा मान रहा है। 

लेकिन ये मठाधीश भी कोई कम खापट नहीं हैं, इन्हें पता है, इन अमर रचनाओं पर शोध कार्य कराना ज़रूरी है। ये अमर रचनाएँ नए-नए साहित्य के बकरों के लिए चारा हैं, उन्हें अपने पास बुलाने के लिए “आओ हमारे पास है तुम्हें खिलाने के लिए चारा, इसे खाओगे तो अमर हो जाओगे।”

ख़ैर अपनी रामकहानी भी कह लें थोड़ी सी . . . जहाँ जहाँ लिखा हुआ भेजा जा रहा है, वहाँ वहाँ से खेद भरा शोक संदेश आ रहा है, रचना बेरंग लौट रही हैं। लेकिन मैं हूँ ना अति आशावादी पीढ़ी का लेखक . . . यही सोच कर राहत महसूस कर रहा हूँ कि शायद ये रचनाएँ अमर होने के लिए हैं, इसलिए संपादक के चौखट पर जाकर शहीद होती है . . . अपना नाम अमर करने के लिए। मर के ही अमर हुआ जा सकता है . . . 

श्रीमती जी से भी कह चुका हूँ, मेरी रचनाएँ अमर होने के लिए मुझ से लिखवा रही हैं। इसलिए इन रचनाओं को धूल धूसरित होने से बचा रहा हूँ। पेपरमेशी की लुगदी होने से बचा रहा हूँ, कबाड़ के तराज़ू में तुलने से बचा रहा हूँ। रचनाएँ जीते जी अमर मानी नहीं जा सकती, उन्हें मरना पड़ता है . . . बार-बार संपादकों की चौखट पर, आलोचकों के शब्दभेदी बाणों की मार से गुज़रना पड़ता है। बार बार रचनाओं का जनाज़ा निकलता है। शवयात्रा भी हाईटेक हो गयी है। पहले डाक से आने में चार पाँच दिन लग जाते थे, सीधे ही तीये, पाँचे के बैठक घर में होती थी। कई बार रचनाएँ गुमशुदा मौत की तरह सुपुर्द-ए-ख़ाक हो जाती थी। आजकल अनुडाक की सुविधा से तुरत-फुरत सूचना मिल जाती है तो टाइमली सारे क्रियाकर्म कर लिए जाते हैं। साथ में संपादक महोदय का शोक संदेश भी पढ़ लिया जाता है। 

इन रचनाओं के लिए कोई पिरामिड जैसे संरचना ईजाद की जाए जहाँ इन्हें संरक्षित रख सकें, कुछ चिकनी-चुपड़ी समीक्षाओं का लेप लगा दें। रचनाएँ ममियों की तरह संरक्षित रहेंगी तो शायद सदियों तक अमर ही कहलाएँगी। इस बार टाइम कैप्सूल कब गाड़ा जाएगा, सोच रहा हूँ दो चार मेरी शहीद रचनाओं को उसमें शामिल करवा दूँ। 

जितने पुरस्कार दिए जाते हैं वो रचनाकारों को दिए जाते हैं, कुछ पुरस्कार इन शहादत प्राप्त रचनाओं के लिए भी होने चाहिएँ–जैसे वीर चक्र, परम वीर चक्र . . . जैसे ही कुछ . . .

‘आखिर साहित्य के वेदी पर रचनाएँ शहीद हो रही हैं . . .’

अब देखो न पहले तो कुछ मन बनाया लिखने का, फिर उस पर भी ऐसा लिखो जो व्यंग्य कहा जाये . . . साहित्य भी बाज़ार की ज़रूरत के हिसाब से लिखा जाता है . . . 

अब आप ख़ुद ही ढोल बजा लो कि आप जो लिख रहे हैं वो व्यंग्य है, लेकिन संपादक भी तो माने। कुछ संपादक हैं जिन्हें मैंने रचनाएँ भेजीं, उन्होंने वापस भेज दीं कि ये व्यंग्य रचनाएँ नहीं बनी हैं। मैंने उन्हें दलीलें देना शुरू किया, “मैंने इसमें से कुछ रचनाएँ कुछ दोस्तों को पकड़ कर सुनायी थीं, वो बुरा मान गए, उन्होंने मुझसे बात करना बंद कर दिया। एक बार एक रिश्तेदार को सुनायी, वो सी . . . सी . . . करने लग गए मैंने कहा, “जलेबी खा रहे हैं आप, मिर्ची पकौड़ा नहीं, इनमें कहाँ से मिर्ची लग गयी।” कुछ नहीं बोले उठ के चले गए। मैंने सोचा ये मिर्ची भी न लगने के लिए खाने में होना ज़रूरी नहीं है, कहीं से कैसे भी कहीं पर भी लग सकती है। एक बार एक भावी विधायक जी को सुनाये थे तो वो भी नाराज़ हो गए, बिना मेरी चाय पीये चले गए। हमारे पड़ोसी शर्मा जी को सुनायी थी, उन्होंने मेरा उधार का अख़बार अब मुझे लौटाना बंद कर दिया।”

लेकिन संपादक महोदय मानते नहीं हैं, मैं पूछ बैठा, ”अब आप ही बताइये क्या करूँ कि ये मेरी रचना व्यंग्य रचना लगे।” वे बोले, “आप शीर्षक के साथ ‘व्यंग्य रचना’ नहीं जोड़ते, हमें कैसे पता लगेगा भला।” उसके बाद से शीर्षक के साथ तख़ल्लुस के रूप में ‘व्यंग्य रचना’ जोड़ने लगा हूँ, अब संपादक महोदय पूरी तरह कन्विंस हैं। सच ही तो है कितने ही परिवार गाँधी उपनाम लगाकर गाँधीवाद के ठेकेदार बन गए। सोच रहा हूँ नाम के आगे तख़ल्लुस भी बदल लूँ, कोई ‘व्यंग्य श्रेष्ठ’, ‘व्यंग्य शिरोमणि’, ‘व्यंग्य पुरोधा‘ जैसा रख लूँ। शायद मैं भी व्यंग्यकार के रूप में स्थापित हो जाऊँ। कुछ दो-चार रचनाएँ किसी मठाधीश के चरणों की धूली लग कर शायद किसी कोर्स की किताब में लग जाए। दो चार चेले-चपाटों को पालकर, या मैं ख़ुद उनसे पलवाकर उन्हें मेरे ऊपर शोध करने के लिए लगा दूँ। लेकिन इन सबसे पेट नहीं भरता, मैं तो अपनी रचनाओं को अमर करना चाहता हूँ, और इसके लिए मारक क्षमता के व्यंग्य लिखने की बजाय ऐसे व्यंग्य लिखना चाहता हूँ ‘जो मरने के लिए तैयार रहे, मारने के लिए नहीं।’

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