प्रसाद की आर ओ आई
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. मुकेश गर्ग ‘असीमित’15 Apr 2025 (अंक: 275, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
आस्था में मिलावट कोई नई बात नहीं है, जनाब। हाल ही में तिरुपति बालाजी मंदिर के लड्डुओं में मिलावट को लेकर जो बवाल मचा, उसने एक बार फिर श्रद्धा और भावना की थाली में संदेह का रायता फैला दिया। लेकिन सोचिए, क्या यह मिलावट सिर्फ़ लड्डुओं तक सीमित है? या फिर आस्था के हर चोला ओढ़े कोने में कुछ न कुछ मिलाया ही जा रहा है?
मुझे अपने मेडिकल कॉलेज के दिनों का एक बड़ा ही स्वादिष्ट और “धार्मिक” अनुभव याद आता है। जयपुर के एसएमएस मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस कर रहा था। वैसे तो धर्मनिष्ठा की शुरूआत पढ़ाई की परीक्षा-पारायणता से ही होती है—भगवान अच्छे नंबर दिला दें, बस इतना ही नहीं, असली डर तो इस बात का रहता था कि बैक (पूरक परीक्षा) न लग जाए।
अब इसी डर का इलाज खोजते हुए हम हर बुधवार को जयपुर के प्रसिद्ध मोती डूंगरी गणेश जी के दरबार में हाज़िरी लगाते थे। मंदिर की सीढ़ियों के नीचे एक ‘आधिकारिक प्रसाद स्टॉल’ हुआ करता था—प्रमाणित, ‘मंदिर की ही दुकान है’ वाला बोर्ड! बाबा गणेश की सिफ़ारिश के लिए मंदिर की ही दुकान से लेंगे तो शायद पुजारी जी हमें बाबा से सिफ़ारिश लगवा ही दें! वैसे इस नियम का पालन हम आज तक करते आ रहे हैं—हमारे इष्टदेव के मंदिर पर जाते हैं तो प्रसाद वहीं से लेते हैं, जो पुजारियों के परिवार वालों द्वारा चलाई गई दुकानों से मिलता है।
हम जैसे मेडिकल छात्र, तंग बजट वाले श्रद्धालु, दो रुपये का प्रसाद लेते—उस समय चार लड्डू मिलते थे। भीड़ इतनी होती कि मंदिर का पुजारी ख़ुद भीड़ में गुम, बस एक रूटीन-सा प्रोसेस चलता—आप थैली पकड़ाइए, वह उसमें से दो लड्डू बिना थैली पर नज़र डाले और आपको हिक़ारत भरी नज़र से देखता हुआ, “ईश्वर को अर्पण” के नाम पर नीचे रखी बड़ी-सी परात में डाल देता।
हमें लगा, यह कुछ घाटे का मामला है—किस्मत में लिखवा कर लाए थे चार लड्डू, दो पुजारी की परात में चले गए और दो हमारे हाथ में। लेकिन मामला भगवान के दरबार का था, गणेश जी से परीक्षा पास करवाने की सिफ़ारिश करवानी थी, इसलिए हम इसे घाटे का बजट मानकर ‘श्रद्धा टैक्स’ भरते रहे।
वहाँ चूँकि हमारा जाना नियमित था, तो धीरे-धीरे एक पैटर्न पकड़ में आया।
जो दो रुपये का प्रसाद लाता—उसके दो लड्डू भगवान जी के नाम पर ‘परात’ में चले जाते।
जो ग्यारह रुपये वाला होता—उसकी थैली को पुजारी जी बाक़ायदा भगवान के सामने ‘दिखाते’, फिर वही दो लड्डू निकालते, कोई एक मंत्र बुदबुदाते और थैली वापस पकड़ा देते।
इक्कीस वाला—उसकी थैली को गणेश जी की सूँड़ के पास लहराया जाता, एक की जगह चार मंत्र बुदबुदाए जाते . . . लेकिन लड्डू अब भी दो ही निकाले जाते! यहाँ आपने एक बात ग़ौर की—भगवान जी का कट फ़िक्स था . . . दो लड्डू . . . कोई प्रतिशत वाला सिस्टम नहीं! यह सब आजकल बिगड़ा हुआ मामला है, साहब!
और जिसने इक्यावन या उससे अधिक चढ़ाया—तो पुजारी की मुस्कान बोनस में मिलती, मंत्र बुदबुदाए जाते, कोई लड्डू निकाले नहीं जाते बल्कि ‘वैल्यू एडेड सर्विस’ के रूप में पहले से चढ़े हुए लड्डुओं में से भी दो और दे दिए जाते।
और अगर ग़लती से किसी ने १०१ चढ़ा दिए—तो फिर तो यूँ समझिए कि भक्त और भगवान के बीच कोई उच्च स्तरीय वार्ता स्थापित करने के लिए पुजारी पिल पड़ता . . . वह बाबा गणेश से विशेष प्रार्थना करता . . . “टून टुनी” भी बजता . . . प्रसाद की थैली के साथ आरती का दीपक भी घुमाता . . . गणेश जी के यहाँ चढ़ी हुई दो माला भी लाकर भक्त को देता . . . और गणेश जी का सिंदूर का तिलक भी लगाता!
कहने का मतलब— ‘ग्राहक श्रेणी’ के अनुसार प्रसाद वितरण में एक क्लास थी, एक डाइनैमिकता (गति और विविधता) थी।
हमारा ख़र्चा सीमित था, तो दो रुपये से ऊपर जाना हमारे पर्स की आस्था के विरुद्ध था। बचे हुए दो लड्डुओं में से एक लड्डू हम अक्सर नीचे बैठने वाले एक सूरदास-नुमा श्रद्धालु को अर्पित कर देते— और एक स्वयं प्रसाद स्वरूप ग्रहण कर लेते। यानी— “आधी श्रद्धा में पूरा विश्वास!”
यह सूरदास-नुमा श्रद्धालु मुझे अच्छी तरह याद है . . . “गज रे गजानन बाबा, रखियो लाज हमार . . .”— बहुत ही विशिष्ट सुर में वह गाता था।
एक बार यह कष्टप्रद अनुभव अपने एक हॉस्टल मित्र को सुनाया। उसने हँसते हुए कहा, “यार, तुम्हारा तरीक़ा ही ग़लत है। मेरे साथ चलो, असली प्रसाद प्राप्ति का रास्ता दिखाता हूँ।”
मैं उसके साथ गया। उसने प्रसाद की दुकान से कुछ नहीं लिया। ऊपर मंदिर में पहुँचे, हाथ जोड़कर थोड़ी-सी बुदबुदाहट, “जय गणेश देवा . . . ”
तभी पीछे से आवाज़ें आईं,“आगे बढ़ो, आगे बढ़ो . . . ”
चौकीदारों ने धकियाया। जैसे ही हम पुजारी जी के सामने पहुँचे, मेरे दोस्त ने चुपके से दो रुपये का नोट निकालकर दानपेटी के पास हिलाया। पुजारी जी का ध्यान अपनी और आकर्षित करने का एक प्रयास!
पुजारी जी मुस्कुराए। प्रसाद की परात में से चार गरमागरम लड्डू निकालकर हाथ में रख दिए, साथ में थोड़ा-सा सिंदूर भी। हम धन्य हो गए— ROI (रिटर्न ऑन इंटेंशन) का असली अर्थ यहीं समझ में आया— Return on Intention!
बाहर आकर मैं उस मित्र का धन्यवाद कर ही रहा था, कि उसने एक और ख़ुलासा किया—“तुम्हें पता है, वह जो ऑफ़िशियल प्रसाद की दुकान है, वहाँ मिलने वाला ज़्यादातर लड्डू रिसायकल होता है! ऊपर से चढ़े प्रसाद को वापस नीचे लाया जाता है, फिर पैक करके बेचा जाता है, फिर वही चढ़ाया जाता है . . . और फिर से बेचा जाता है।”
वह हँसकर बोला— “बस यही तो श्रद्धा की सर्कुलर इकॉनॉमी है!”
प्रसाद के नाम पर दो रुपये से लेकर 101 रुपये तक की भक्ति में जो अंतर आता है, वह केवल धार्मिक भावना नहीं, एक संगठित सस्टेनेबल बिज़नेस मॉडल का प्रमाण है। आस्था में ROI की उम्मीद मत कीजिए . . . या कीजिए, तो दान की राशि बढ़ाइए।
भक्ति की भी एक मार्केटिंग स्ट्रैटेजी होती है, और मंदिर उसका हाई-एंड ब्रांड आउटलेट।
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