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अथ मानसून-वितरण संवाद

मानसून आवंटन के हेड ऑफ़िस इन्द्रपुरी महकमे के काल्पनिक वार्तालाप— कालिदास के मेघदूतम् प्रसंग से प्रेरित। 

स्थान: राजधानी का शासकीय मंडप
काल: विकट वर्षा मास, ग्रीष्मांत का प्रथम दिन
पात्र:
➤ देवराज इंद्र (उच्चाधिकारी, स्वघोषित इन्द्र-प्रतिनिधि) 
➤ किंकर (मातहत सेवक, कालिदासी चेतना से पीड़ित) 
➤ मेघराज (ग़ैरहाज़िर अभियुक्त, केवल संदर्भ में) 

प्रथम दृश्य: अधोलोक का जलद-प्रशासन

 

(देवराज इंद्र स्वर्णासन पर बैठे है, माथे से गीले बालों से जल टपक रहा है। मूँछों पर चाय की भाप। मातहत किंकर सामने खड़ा है— एक हाथ में साधारण छतरी, दूसरे में रिपोर्ट) 

देवराज इंद्र: 

“हे किंकर! 

नालियाँ भर उठीं, छतें बह चलीं, पटरियाँ जलमग्न हो गईं। 

मैं पूछता हूँ— यह कौन-सा प्रलय आ गया है नगर में?” 

किंकर (हाथ जोड़ते हुए):

“स्वामिन्! 

यह ‘मेघपतन-समयः’ है। 

आकाशगामी जलपुंज, जिन्हें प्राचीन काल में ‘मेघ’ कहते थे, बिना आपकी आज्ञा के बरस पड़े हैं। 

शासनादेश की सीमाएँ लाँघ दी गई हैं, प्रभो!”

देवराज इंद्र (क्रुद्ध होकर):

“हा हन्त! 

यह अपमान है समस्त मंत्रालय का! 

मैंने तो आदेश दिया था—

‘जब तक स्वीकृति न मिले, बादल केवल मँडराएँ, टपकें नहीं!’

फिर यह जलवृष्टि कैसे घटित हुई?” 

किंकर (नतमस्तक):

“प्रभो! 

दोष इन मेघों का नहीं, दोष उस प्राचीन यक्ष का है—

जो रामगिरि पर बैठा, अब तक यक्षिणी के विरह में तपस्या कर रहा है। 

उसी ने कालिदास के निर्देश पर मेघ को प्रलोभन देकर दूत बना दिया—

और तब से मेघों को अपनी सीमा का ज्ञान नहीं रहा।”

 

द्वितीय दृश्य: बादल— आपराधिक घोषित

 

देवराज इंद्र (हथेली पर ताली मारते हुए):

“अरे मूढ़! 

यह नगर तो मेरे अधीन है—

यहाँ मेघराज नहीं, मैं तय करता हूँ कि

कब, कहाँ, कितनी जलवृष्टि होगी, और कहाँ क्षेत्र शुष्क रखा जाएगा! 

यक्ष को दंडित करो! 

उस पर राष्ट्रद्रोह का अभियोग चलाओ—

‘आपदा प्रबंधन विधेयक 2। 0’ के अंतर्गत उसे गिरफ़्तार करो!”

किंकर (विनम्रतया, किंचित लज्जित स्वर में):

“प्रभो! 

यक्ष न तो न्यायालय की तिथि पर उपस्थित होता है, 

न ही नीतिपत्र की अनुच्छेदावली का अवलोकन करता है। 

भवतः आज्ञाओं की अवहेलना कर, 

सःयक्षिणी के विरहदाह में संज्ञाशून्य हो गया है। 

वह केवल मेघों से ही संवाद करता है, अन्य से नहीं! 

“वयं प्रयासपूर्वक यत्नरत्नं कृतवन्तः, हे प्रभो! 

‘क्या चल-रहा है’ नामक यंत्र द्वारा सन्देश प्रेषित करने का प्रयत्न किया गया था। 

परन्तु न केवल उस यक्ष ने अनुमोदन प्रदान करना उचित समझा, 

अपितु वह सन्देश स्वीकृत भी नहीं किया गया। 

यह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है—

कि यंत्र में सन्देश-ग्रहण की सूचक द्वि-रेखाएँ तक प्रदीप्त नहीं हुईं।”

देवराज इंद्र (गंभीर स्वर में, भ्रुकुटि ताने हुए):

“अतः अब विशेष इन्द्र-दण्ड-दल का गठन किया जाए। 

तत्क्षण रामगिरि की ओर प्रस्थान करो। 

उस यक्ष को राजादेश से बंदी बनाया जाए। 

उससे यह संकल्प-पत्र भरवाया जाए, 

जिसमें वह यह प्रतिज्ञा करे कि—

‘मेरे द्वारा भविष्य में कोई भी मेघ-वृष्टि

तब तक नहीं की जाएगी, 

जब तक राज्याधिपति की आज्ञा प्राप्त न हो।’

स्मरण रहे—मेघों का संचालन अब अनुशासन-पथ से ही होगा।”

 

तृतीय दृश्य: मानसून का टेंडर

 

 

देवराज इंद्र (गंभीर वाणी में, सिंहासन पर स्थित होकर):

“हमने तत्काल एक निर्णय लिया है—

अब से वर्षा की व्यवस्था केवल ई-तेंदुवर पत्र-पद्धति के माध्यम से ही की जाएगी। 

जो नगर अधिकतम जनसमर्थन (मतदान) देगा, वही पहले वर्षा का सुअवसर प्राप्त करेगा। 

और स्मरण रहे—

हमारी धर्मपत्नी शची के मायके पक्ष के सदस्य शीघ्र ही इन्द्रपुरी पधारने वाले हैं। 

उनके स्वागतार्थ वहाँ विहार-स्थल को रमणीय बनाना आवश्यक है। 

अतः उस क्षेत्र में पूर्ववर्षा-वृष्टि की विशेष व्यवस्था की जाए।” 

किंकर (हस्त जोड़कर, नम्रतापूर्वक):

“यथाज्ञा, देवेन्द्र! 
किन्तु कुछ नागरिकों ने सूचना के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत यह जिज्ञासा की है कि—

‘मानसून की वृष्टि में कितना जल अमृत योजना का है और कितना यक्ष योजना के अंतर्गत आता है?’” 

देवराज इंद्र (मुख पर कृत्रिम गंभीरता लाते हुए):

“उत्तर दो—

‘यह विषय गोपनीय है। 

राष्ट्रहित में उसका प्रकाशन अनुचित समझा गया है।’

और हाँ, 

आगे से समाचार-पत्रों में यह टंकण नहीं किया जाए कि—

‘बाढ़ में बह गया तंत्र।’

इसके स्थान पर यह वाक्य प्रकाशित किया जाए—

‘जलराज्य के पावन आगमन-पर्व पर प्रशासन ने समस्त प्रजा को जलयात्रा का उपहार अर्पित किया।’” 

किंकर (विनययुक्त स्वर में, करबद्ध होकर):

“हे मेषध्वज! 

आपकी धर्मनिष्ठ न्यायप्रियता को प्रत्यक्ष देख, मेरा हृदय गद्‌गद्‌ हो उठा है। 

आप वास्तव में मरुत्पति हैं— वायु आपकी संकेत-मात्र से संचरित होती है। 

यदि आज्ञा हो, तो क्या यह समस्त संवाद वर्षा-विज्ञान मंत्रालय (मौसम विभाग) को भी प्रेषित कर दिया जाए, 

ताकि वे भी समय रहते दिशा एवं दशा का ज्ञान प्राप्त कर सकें?” 

 

अवसान वाक्य:

 

“और इस प्रकार, मानसून के नाम पर
दंड का पात्र बना यक्ष, 
मेघों को इन्द्रलोक के सुरों के लिए सुर, सुरा और सुंदरी की यायावर प्रेरणा बनाता रहा। 
और प्रजा? 
वह तो अब डरती है कि कहीं नोटबंदी की तरह
‘मानसूनबंदी’ की घोषणा मानसून विभाग से न आ जाए। 
शायद ऐसे ही किसी आदेश की प्रतीक्षा में मौसम थमा हुआ है। 
तब तक आप 'टिप-टिप बरसा पानी' जैसे पुराने गाने सुनिए—
और टेंडर फ़ॉर्म भरते रहिए!”

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