मेरे पक्के दोस्त
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. मुकेश गर्ग ‘असीमित’15 Oct 2025 (अंक: 286, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
मेरे एक पक्के दोस्त थे। दुःख इस बात का नहीं है कि अब वो नहीं रहे! नहीं, दुनिया में तो वे अभी भी हैं— बस मेरे पक्के दोस्त नहीं रहे। हो सकता है दोस्त भी नहीं रहे . . . कह नहीं सकते! मैं थोड़ा इस मामले में कच्चा ही हूँ कि दोस्ती भी कच्ची-पक्की, अधपकी जैसी की जा सकती है! शायद मैं दोस्ती निभाने के क़ाबिल हूँ ही नहीं, ऐसा उनका मानना है, और इसके साक्ष्य भी उन्होंने पूरे शहर में प्रस्तुत कर दिए हैं।
ख़ैर, बात तब की है जब वे मेरे पक्के दोस्त थे। यह बात मैं भी मानता था और वे भी मानते थे, बल्कि हर कोई जो उन्हें जानता था, यही कहता था— “वो मेरा पक्का दोस्त है!” इस बात की चर्चा पूरे शहर में आग की तरह फैल गई, ऐसी आग जिसके कारण सभी हम दोनों से जलने लगे।
इनके बारे में बताऊँ— ये किसी से कच्ची दोस्ती नहीं करते। अगर दोस्ती करते हैं तो पक्की ही करते हैं। मेरे ये दोस्त सुबह से ही पक्की दोस्ती निभाने निकल जाते थे और शाम को लौटते समय दो-चार पक्की दोस्तियाँ अपनी झोली में जमा करके ही लौटते थे। दोस्ती के पक्के दाँत हमेशा उनके मुँह से बाहर निकले रहते थे, बिलकुल हाथी के दाँतों की तरह। उन दाँतों को देखकर कोई भी उनसे पक्की दोस्ती करने को उतावला हो जाता था। उन्हें लगता था कि जो उनका पक्का दोस्त है, बस उसी को समाज में रहने का हक़ है— बाक़ी सब यहाँ कूड़े के ढेर की तरह हैं। और उनकी कोशिश रहती थी कि जो उनके पक्के दोस्त नहीं हैं, उन्हें कैसे इस समाज से निकाला जाए।
किसी भी संस्था में घुसते ही सबसे पहले दो-चार पक्के दोस्त बनाते हैं, लेकिन ध्यान रखते हैं कि एक दोस्त को दूसरे का पता न लगे। सबसे अलग-अलग मिलकर पक्की दोस्ती निभाते हैं और इस बात का सबूत देने के लिए दूसरे दोस्तों की जमकर छीछालेदर करते हैं। इस काम को अंजाम देने के लिए सबसे पहले जिसे पक्का दोस्त बनाना है, उसकी जन्मकुंडली देखते हैं—उसका ख़ानदान, वैभव, यश, पहुँच, राजनीतिक-सामाजिक स्थिति—सब कुछ। डॉक्टर और वकील को वरीयता देते हैं ताकि बिना फ़ीस दिए ताजिंदगी अपने और अपने परिवार का काम निकलवा सकें।
फिर देखते हैं कि कौन-कौन इनके पहले से बने दोस्त हैं जो इनकी पक्की दोस्ती के रास्ते में आ सकते हैं। उन्हें ठिकाने लगाने का काम शुरू होता है। उनकी कुंडली खंगालकर ऐतिहासिक साक्ष्य प्रस्तुत किए जाते हैं कि फ़लाँ दोस्त क्यों आपके लायक़ नहीं है। कोई परजीवी, कोई औक़ात का नहीं, कोई जात-पाँत से तुच्छ, कोई हैसियत से नीचे—ये सारी दलीलें काम कर जाती हैं। जब रास्ता बिलकुल साफ़ हो जाता है और इंसान उनसे दोस्ती करने के लिए तड़पने लगता है, तब वे अपनी पक्की दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं।
हम भी ऐसे पक्के दोस्त की हसरत पाले हुए थे। उनके ख़ूबसूरत, पक्की दोस्ती की संगमरमर जैसी पॉलिश किए हुए, दिखावटी हाथी-दाँतों को देखकर फिसल गए— और उनके पक्के दोस्त बन गए!
तुरत-फुरत उन्होंने हमारे साथ दो-चार रीलें बना डालीं। अपनी पुरानी पक्की दोस्ती की रीलों में से अपना ट्रेडमार्क गाना ‘ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे’ निकाला और उसे नई रील के साथ जोड़ दिया। सोशल मीडिया के ज़रिये पूरे शहर में मुनादी करवा दी कि हम अब पक्के दोस्त बन गए हैं!
कई पूर्व पक्के दोस्तों—जो अब उनकी पक्की दोस्ती से तलाक़ ले चुके थे—प्रताड़ित आत्माओं की तरह चुप नहीं बैठे। उन्होंने आहिस्ता-आहिस्ता आग़ाज़ किया, “जिसके कारण तुमने हमसे दोस्ती तोड़ी है, देख लेना! थोड़े दिनों में पता लग जाएगा कि उसके असली दाँत कौन से हैं।”
धीरे-धीरे हमें पता चला कि उनकी दोस्ती का वज़न बहुत ज़्यादा है, जिसे हर कोई सहन नहीं कर सकता। गर्दन झुक जाती है, आँखें नज़रें चुराने लगती हैं, चलना मुश्किल हो जाता है। उनकी पक्की दोस्ती अपना रंग दिखाने लगी। मेरा उठना-बैठना, मॉल मूत्र विसर्जन—सब उनकी दोस्ती की सर्विलांस में, जैसे मेरी ज़िंदगी में उनका सीसीटीवी कैमरा फ़िट कर दिया गया हो।
“क्या बात है, गर्ग साहब! अकेले-अकेले बेटे का बर्थडे मना लिया?”
“अरे, आप भाभीजी के साथ जयपुर गए थे और हमें बताया तक नहीं! मुझे भी जाना था, यार। आपके साथ गाड़ी में चल लेते।”
“क्या बात है, गर्ग साहब! संस्था में पद आवंटन था, आपने हमारा नाम ही प्रस्तावित नहीं किया! बताइए, वर्मा जी का नाम दे दिया—उनसे आपकी कौन सी पक्की दोस्ती है?”
“सारा शहर हमारी दोस्ती की मिसाल देता है, और आप ही ध्यान नहीं रखते!”
“मेरे दूर के रिश्तेदारों को आपको दिखाने लाया था, बताइए, आपने उनसे ही फ़ीस ले ली! मुझे कितनी ज़िल्लत उठानी पड़ी, यार, जब उन्होंने कहा—‘अरे, ये कैसा पक्का दोस्त है तुम्हारा, जिसने फ़ीस ही ले ली!’”
धीरे-धीरे उनकी महानता मुझ पर हावी होने लगी। वो ‘डॉक साहब’ से ‘गर्ग साहब’, फिर सीधे ‘गर्ग’, और फिर ‘तू-तड़ाके’ तक का सफ़र महज़ दो दिन में तय कर चुके थे। और मैं? मैं अब तक “महान मित्र, कुलभूषण, सम्मानीय आदरणीय साहब” से आगे बढ़ ही नहीं पाया था!
मेरे साथ हालात साँप-छछूँदर वाले हो गए—ना निगलते बनें, ना उगलते। दोस्ती कैसे निभाई जाए, इस संदर्भ में दस पुस्तकें मँगवाईं। लेकिन मुझे ज़रूरत इस बात की थी कि इस पक्की दोस्ती को बिना कोई कोलेटरल डैमेज किए कैसे तोड़ा जाए! इस विषय पर कोई पुस्तक कहीं नज़र नहीं आई!
ख़ैर, हुआ वही जो होना था। जिस दिन पक्की दोस्ती की ये इमारत ‘धम्म’ से गिरी, भूचाल-सा आ गया। बड़ी मुश्किल से ख़ुद को संभाला—इस क़सम के साथ कि अब कभी भी इस ‘पक्की दोस्ती’ का बुख़ार सिर पर नहीं चढ़ने देंगे!
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