इलाज का टेंडर
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. मुकेश गर्ग ‘असीमित’1 Nov 2025 (अंक: 287, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
“डॉक्टर साहब, आप तो ये बताओ, इलाज में कुल ख़र्चा कितना बैठेगा?”
मरीज़ एक्सीडेंट का है। ज़ाहिर है, मरीज़ के सभी अटेंडेंट डील ब्रेकर बनकर आए हैं। इनमें असली घरवाले कौन हैं, यह पता लगाना मुश्किल है। भीड़ देखकर लगता है कि मामला एक्सीडेंट का है और एक्सीडेंट करने वाले को पकड़ लिया गया है। मरीज़ को अस्पताल के हवाले कर दिया गया है, और बाहर एक्सीडेंट करने वाले का गिरेबान पकड़कर गालियाँ दी जा रही हैं, धमकाया जा रहा है। पुलिस केस की धमकी से जितना ऐंठ सकते हैं, उतना ऐंठने की कोशिश में लोग लगे हुए हैं।
इस बीच, कुछ ऐसे मामलों के दलाल, जो इस मौक़े का निवाला खाने के आदी होते हैं, तुरंत सूँघकर आ जाते हैं। ये वो लोग होते हैं जो दोनों पार्टियों से अपनी जान-पहचान बना लेते हैं। कुछ वकील, जिनकी रोज़ी-रोटी ऐसे ही मामलों पर निर्भर करती है, अपनी घिसी-पिटी वकालत के साथ मामले को कोर्ट के बाहर पैसे देकर सुलझाने का सुझाव देते हैं। बस, एक मोटा कमीशन दोनों तरफ़ से मिल जाए, तो सब सेट हो जाता है।
मरीज़ के पास कोई नहीं है। उसे अस्पताल के स्टाफ़ ने सँभाल रखा है। वहीं, कुछ लोग बीच-बीच में आकर स्टाफ़ से सवाल करते जा रहे हैं, “क्या हो रहा है भाई, मरीज़ का इलाज शुरू नहीं किया अभी तक? प्राइवेट अस्पताल होते हुए भी ये हाल है!”
“कितना ख़र्च लगेगा”—उनमें से सभी ने बारी बारी से पूछा।
मैंने कहा, “मुझे देखने तो दो, करना क्या है इसमें।” मैंने सभी को बारी बारी से बताया . . .
“अरे डॉक्टर साहब, पार्टी के सामने बता दो, कितना ख़र्चा लगेगा?”
“10 हज़ार लगभग,” मैंने कहा।
“अरे डॉक्टर साहब, इसके अलावा मरीज़ को लाने-ले जाने का ख़र्चा भी तो होगा। बाद का ख़र्चा भी तो है न?”
मैंने कहा, “भाई, ये अनिश्चित है। बाद में भी ख़र्चा हो सकता है, एक्स-रे, दूसरी जाँचें। फ़ॉलो अप में प्लास्टर आदि। अभी तो सिर्फ़ अनुमान ही लगाया जा सकता है।”
“ठीक है,” वो बोले, “चलो मान लिया 10 हज़ार अभी का। बाद का 20 हज़ार और मान लो, इनके खाने-पीने का भी ख़र्चा। अच्छा, अब आप 50 हज़ार बता दो, पार्टी को ला रहे हैं आपके पास।”
मैंने कहा, “भाई, आप ही बता दो। मैं तो जो मेरे यहाँ लगेगा, वही बता सकता हूँ।”
ख़ैर, मुझसे निराश होकर वे ख़ुद ही सेटलमेंट में लग गए। हो भी गया, स्टाम्प भी लिखा गया। इधर मेरा स्टाफ़ उनके घरवालों से सहमति का फ़ॉर्म लिए खड़ा था ताकि इलाज शुरू कर सकूँ। मरीज़ का कच्चा प्लास्टर लगा दिया गया, और इंजेक्शन भी लगवा दिए गए थे, जिससे थोड़ी राहत मिली। ऑपरेशन की तैयारी चल रही थी।
थोड़ी देर बाद अटेंडेंट फिर आए, बोले, “अच्छा, अब बताओ डॉक्टर साहब, आपने कितना बताया? 10 हज़ार?
“डॉक्टर साहब, ये तो बड़ी लूट मचा रखी है। 10 हज़ार? 5000 में दूसरा अस्पताल तैयार हो जाएगा।”
एक और बोला, “अरे, सरकारी अस्पताल ले चलो। मेरे जानकार डॉक्टर हैं, एक पैसा नहीं लगेगा।”
फिर किसी ने सलाह दी, “वो जीप वाला था, उसने एक पहलवानी देसी इलाजी, जो की देसी तरीक़े से हड्डी सेट करता है, उसकी जगह बताई, जो शहर से 40 किलोमीटर दूर थी। वहाँ मरीज़ ले जाने का अच्छा-ख़ासा किराया मिल जाता है। सच पूछो तो इन जीप वालों ने ही उसे फ़ेमस कर दिया है।”
मरीज़ और उसके अटेंडेंट जाने लगे। मेरे स्टाफ़ ने कच्चे प्लास्टर और इंजेक्शन का चार्ज लेने के लिए 1000 रुपये का बिल थमाया। फिर भीड़ भड़क गई। “लो जी, लूट मचा रखी है! किसने कहा था प्लास्टर लगाने के लिए? अस्पताल में तो बस घुसे नहीं कि प्लास्टर लगा देंगे!”
“यार, हद है! आदमी को साँस भी नहीं लेने देते, बस आते ही इंजेक्शन घुसेड़ देते हैं, प्लास्टर लगा देते हैं। हम तो पार्टी से एग्रीमेंट में थे, हम नहीं देंगे एक पैसा। हमें इलाज नहीं कराना!”
“चलो भाई, ले चलो मरीज़ को, बड़ी लूट है यार!”
मरीज़ जा रहा है। अस्पताल सिर्फ़ इलाज के लिए नहीं, बिडिंग सेंटर भी हैं, आउट ऑफ़ कोर्ट सेटलमेंट का अड्डा, इलाज के लिए टेंडर भरे जाते हैं, बोली लगाई जाती है। ऊँची बोली पर मामला सेटल करने के लिए धमकाया-फुसलाया जाता है, कोर्ट के चक्कर दिखाकर मोटी रक़म वसूली जाती है। आपदा में अवसर ढूँढ़ने वाले हर तरफ़ होते हैं, तो मरीज़ और उसके रिश्तेदार क्यों पीछे रहें?
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