मेरी अंतिम विदाई
काव्य साहित्य | कविता कंचन चाबुक1 May 2024 (अंक: 252, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
ये जो भी साथ चल रहे हैं
मेरे अपने थे सभी
कभी जो सच होंगे
मेरे सपने थे सभी
जिन्हें हँसते हुए देखा था
वो आज गुमसुम खड़े हैं
जिन्हेंं नफ़रत थी मुझसे
वो आज न मुझसे लड़े हैं
ये कैसा है मंज़र
ये कैसा समा है
जिनसे कभी मिले नहीं
वो भी आज इस भीड़ में जमा हैं
जिसने लोरी सुनाई
वो आवाज़ थम गई
जिसने कांधे पे झुलाया
वो बाज़ू सहम गई
सभी मिलकर एकता दिखाने लगे
मेरी अर्थी को कंधा लगाने लगे
आज अंतिम विदाई है
और सभी मेरे साथ हैं
कोई कुछ बोलता ही नहीं
ना जाने क्या बात है
चलना चाहती हूँ पर
न उठते क़दम है
भीड़ से घिरी हूँ
क्यों ये ठंडा बदन है
आज चिन्ता से मुझको
छुटाया जा रहा है
मेरे तन को चिता पर
लिटाया जा रहा है
सूख जाएँगे सबके आँसू
कभी न कभी
दे दो अंतिम विदाई
मुझे मेरे अपनो अभी॥
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