मेरी बेख़याली
शायरी | नज़्म डॉ. सुखबीर सिंह शास्त्री15 Jan 2023 (अंक: 221, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
मैं ग़ुम हूँ अपनी बेख़याली में
वो कहते हैं उनसे हमें सरोकार नहीं
भावों का गुम्फन है ये मन
केवल शब्दों का व्यापार नहीं
कविता रूप है ईश्वर का
अलंकारों का चमत्कार नहीं
मैं भूला दूँगा उन्हें
ऐसे लगते मुझे आसार नहीं।
मैं ग़ुम हूँ अपनी बेख़याली में . . .
ये तिश्नगी, ये जलन,
ये लगन क्यों है जानता नहीं
निकाल कलेजा पाँवों में रख दूँ
पर मेरा मुर्शिद है कि मानता नहीं
मंज़िल इन्तज़ार में है
पर रहगुज़र में कोई मेरा रहबर नहीं
मिल जाता तेरा ख़ुदा तुझे सुखबीर
सुना है कि कोई भी तेरा पैरोकार नहीं
मैं ग़ुम हूँ अपनी बेख़याली में . . .
मैं तलबगार हूँ तेरे दीदार का
पर न जाने क्यों रब न माने
आजकल कुछ खोया-खोया हूँ
पर लगता बीमार नहीं
हालचाल पूछते हैं सब
पर मिलता कोई तीमारदार नहीं
मैं ग़ुम हूँ अपनी बेख़याली में
वो कहते हैं उनसे हमें सरोकार नहीं . . .
तिश्नगी=प्यास, लालसा, तड़प, उत्कंठा, तमन्ना, तीव्र इच्छा, अभिलाषा, इश्तियाक़; मुर्शिद=गुरु, पथप्रदर्शक, पीर; रहगुज़र=रास्ता, पथ, मार्ग; रहबर=मार्गदर्शक, पथप्रदर्शक, राह दिखाने वाला; पैरोकार=पालन करने वाला, अनुयायी, पैरवी करने वाला व्यक्ति, पैरवीकार; तलबगार=इच्छुक, अभिलाषी, माँगने वाला; दीदार=दर्शन, मुलाक़ात; तीमारदार=रोगी की शुश्रूषा करने- वाला, परिचारक; सरोकार=परस्पर व्यवहार का संबंध, लगाव, मतलब, प्रयोजन, वास्ता
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