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नहीं देख पाओगे तुम!

 

(कभी टूट कर चाहा था तुमने, 
अब उसी चाहत से तोड़ रहे हो! 
कहीं यह नई तराश तो नहीं . . .) 

देखा नहीं जाएगा तुमसे, 
अगर मैं भी ‘तुम’ सी हो गई! 
कैसे देख पाओगे मेरी तरह, 
अपने ख़्वाबों का हौले-हौले मरना-
सिसकते हुए! 
 
क्या मुझे तुम सा होते देखकर 
तुम भी करोगे रातों से संवाद! 
या फिर एकालाप
क्या भूल पाओगे—
अपनी मासूम खनकती हँसी! 
मुझे बेरुख़ी से अपनी ओर ताकते हुए! 
 
क्या मैं जी सकूँगी दोहरी भूमिका
ऐन तुम्हारी तरह! 
दोस्तों बीच महफ़िलों की शान, 
और मेरे साथ— 
रोटी-पानी-ज़रूरत का सम्बन्ध मात्र! 
 
क्या मुझे भी तुम्हारी तरह
घर पर अल्पभाषी—
बल्कि कहूँ कि—
मूक की मानिंद रहना होगा! 
चार-चार प्रश्नों का
एक शब्द में ही उत्तर-
‘हाँ’ या ‘नहीं’ बस! 
 
क्या मुझे भी तुम्हारे साथ! 
बिल्कुल एकांत में होते हुए—
महज़ मोबाइल पर—
फ़ेसबुक या व्हाट्सएप्प—
ही चलाना होगा! 
 
क्या मैं भी सब कुछ
तुम्हारे कंधे पर डाल कर 
कर पाऊँगी सोशलाइज़
अपने सर्कल में! 
 
क्या घर लौटते तुम्हारी, 
ख़त्म हो चुकी बातों—
और मेरी बतियाने को, 
तरसती बातों का अंतराल! 
गहराता ही जाएगा! 
 
क्या मुझे भी
इस रिश्ते को और
सर्द करने में तुम्हें—
सहयोग देना होगा! 
बिना कोई प्रश्न किए . . . 
 
नहीं साहब! 
हम स्त्रियाँ कहाँ
कर पाती हैं! 
पूरी तरह वो सब! 
जो निर्णय लेती हैं। 
न पूरा प्रतिशोध—
न पूरी तरह तटस्थ! 
न ही अपने'
उत्तरदायित्व से विरक्त . . . 
 
शायद कमज़ोरियों से ऊपर
ज़िम्मेदारी का एहसास
ज़्यादा होता है स्त्रियों पर . . . 
सो रिश्ते को निभाने में भी
उसी का दायित्व अधिक!! 
 
इसलिए—
सच कहा! 
नहीं दिखा पाऊँगी—
तुम्हें वह आईना–
जिसमें मैंने तस्वीर—
देखना और खोजना! 
अब बंद कर दिया है . . . 
 
 . . . शेष फिर
 

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