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नशा

शीला आज सिरदर्द से परेशान थी। एक तो सुबह-सुबह हुई पति कदम्ब से चिक-चिक, फिर सुहानी भी अभी तक नहीं आई थी। घर का बिखरा पड़ा काम साँय-साँय कर सिर में बज रहा था। सोचा, ‘चाय बनाकर आराम करूँ और समझने की कोशिश करूँ कि आख़िर पतिदेव चाहते क्या हैं? क्यों बेवजह खाने में, मेरे रहन-सहन में, बात-चीत के ढंग में आए दिन कमियाँ निकालते रहते हैं। और 15 वर्षों से अपने बच्चों की देख-रेख में कोई कमी न रखने पर भी गत माह से उन्हें इस में भी कमी ही कमी दिखाई देती है।’ 

“आज इतनी देर क्यों कर दी सुहानी?” सुहानी के आते ही शीला ने अपनी खीज उतारी। 

“क्या करूँ दीदी? कल रात को वे फिर पीकर आए थे,” कहते हुए वह अपने शरीर पर उभर आए ज़ख्मों को दिखाने लगी। 

“ओह! सुहानी तुझे तो बहुत लगी है। ले यह दवाई लगा। छोड़ आज काम रहने दे। मैं कर लूँगी। तू चाय पी। पर उसने तुझपर हाथ क्यों उठाया?” सुहानी के ज़ख्मों ने उसकी अपनी टीस को क्षणिक तौर पर भुला दिया था। 

“बस दीदी, कल ही पैसे मिले सो शराब पी ली उन्हीं की। पैसे का नशा चढ़ गया तो रोटियाँ जली हुईं और सब्ज़ी फीकी लगने लगी,” बोलते हुए सुहानी ने शीला के हाथ से झाड़ू लेकर कचरा सकेरना शुरू किया। 

कचरा हटा तो फ़र्श पर पड़े धब्बों के समान कुछ और भी साफ़-साफ़ दिखाई दिया। वे दाग़ जो कल शाम खाने की थाली फेंके जाने से बने थे। सच ही तो कहती है सुहानी, पिछ्ले माह ही तो पति की पदोन्नति हुई है और तनख़्वाह भी बढ़ी है। 

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